पँख पखेरू समय कैसे उड़ जाता है,
रिश्ता, यादों की परत दर परत ,
दिल मे सजता जाता है।
कल तक जो गोद से भी,
उतरने में कतराता था।
आज भविष्य की रचना करने,
कैसे सबको छोड़, दूर इतनी निकल जाता है।
बोझिल हो जाता है मन,
आँखें फव्वारा बन जाती है,
जिगर के टुकड़ों की ये दूरी,
दिल को बड़ा रुलाती है।
पूरा घर महकता था जिनकी साँसों से,
आज सिसक रहा है बस,
खालीपन के एहसासों से।
ये कैसी मजबूरी है,
कैसी ये, अपनो से अपनो की दूरी है ??
बरस महीनों आते है, मिलने के चंद लम्हें,
समय गुजरते ही, यादें नित नयी दे जाता है,
सूनेपन के कुछ और लम्हे जोड़ जाता है
पत्थर से दिल को भी सागर कर जाता है।
माना यही समाज की रीति है,
आदमी कोने कोने में बस जाता है,
अपनों से दूर चला जाता है ।
जीवन की आपाधापी में,
जब जीना चाहते है अपनों के संग,
समय बहुत तंग हो जाता है
पूरा जीवन पैकेज की गुजर बसर में,
यूँ ही गुजर जाता है,
अपना भविष्य ही अपना,
अतीत बन जाता है,
जीवन सूना कर जाता है,
पल पल, हर पल बहुत रुलाता है ।
।। पीके ।।