खुद से फिर अनजान न होता.
क्यों आया इस धरा पर मै.
सोच – सोच परेशान न होता.
तन की काया मन की माया.
घर वाले और बाहर वाले.
कितने टुकड़े करूँ मै खुद के.
करूँ मै खुद को किस के हवाले.
इसलिए मै अक्सर ही,
सोचा ये करता हूँ कि………..
कि काश कि मै होता एक पंछी.
फिर मुझे कोई रोक न पाता
सरहद के उस पार भी मै.
अपनी मरजी से जा पाता.
मिलता वहाँ मै सब से पर,
जंग की कोई बात न करता.
प्रेम के गीत उन्हें सुना कर.
अपने घर में आ जाता.
या काश कि मै होता एक वृच्छ……
देता सब को शीतल छाया.
भेद- भाव ना किसी से करता.
क्या अपना और क्या पराया.
पथिक जो मेरे पास आता.
सब को मीठे फल मै देता.
बदले में कुछ भी न लेता.
और काश कि मै होता एक बूंद……
तृष्णा किसी की मिटा तो पाता.
तृप्ति भले न कर पाता पर,
काम तो कुछ पल आ जाता.
और काश मै होता…..
काश कि होता एक कोरा पन्ना.
कोई मुझ पर तो कुछ लिख पाता.
वेद, पुराण और ग्रन्थ न सही,
एक छोटी- सी कविता ही.
जिसे पढ़ कर प्रेरित तो कुछ लोग होते.
और मै एक प्रेरक अंश बन जाता.
और भूल वश गर जुड़ जाता मै,
इतिहास के पन्नों संग.
फिर कोई तमन्ना शेष न होती,
क्यों कि…………………….
युगों तलक मै अमर हो जाता.
काश………कि……मै इंसान न होता.