मस्त विचार – अपने ही घर में , भटकता ढूंढ़ता हूँ – 147

अपने ही घर में, भटकता ढूंढ़ता हूँ

अपनों में अपनों को.

दर है दीवार है, छत है और सब सामान

जो होतें हैं घरों में.

वे लोग भी हैं, जिनके होने से

मकान होता है घर.

बैचैन – सा घूमता हूँ इस घर में,

ढूंढ़ता हूँ किसी अपने को.

क्यों मै अपने को, अकेला महसूस कर रहा हूँ.

सब चीजें अपनी जगह ठीक है.

सारे रिश्ते, कोई भी रिश्ता बिखरा नहीं पड़ा.

फिर क्यों मै अलग – थलग, अनजान अजनबी – सा

ढूंढ़ता हूँ किसी को.

कुछ रूठने कि इच्छा है, कुछ टूटा हुआ हूँ मै

कोई चाहिए दुलारनेवाला.

भटक रहा हूँ अपने ही घर में.

अपने ही घर में, भटकता ढूंढ़ता हूँ.

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