_ मैं तो अपने किरदार में ही रहना चाहता था और चाहता हूँ,
_ पर क्या करूँ ? लोग मुखौटा मांगते और चाहते हैं.
_ कभी-कभी लगता है, मेरा अपना असली रूप ही लोगों को कम पड़ जाता है.
_ मैं जितना सरल होकर जीना चाहता हूँ — उतना ही दुनिया मुझे किसी और रूप में देखना चाहती है.
_ लोग अक्सर मुखौटे मांगते हैं, क्योंकि सच्चाई उन्हें असहज कर देती है.
_ और मैं अपने किरदार में रहना चाहता हूँ, क्योंकि वही मेरा सत्य है, वही मेरा सुकून है.
_ शायद यही संघर्ष है..- दुनिया की अपेक्षाओं और अपने भीतर की सच्चाई के बीच.
_ लेकिन दिन के अंत में, मैं खुद से यही पूछता हूँ :
_ क्या मैं अपनी आत्मा के प्रति ईमानदार हूँ ?
_ अगर हाँ…- तो भले ही दुनिया मुखौटे चाहे,
_ मैं अपने किरदार में ही रहूँगा… क्योंकि वही मेरा घर है.!!
_ और जिस दिन वह अपनी तकलीफ़ के खिलाफ खड़ा होता है, लोग उसके बदलाव का कारण अपने भीतर नहीं देखते.
_ वे यह नहीं कहते कि “शायद हमारे ही व्यवहार ने इसे चोट पहुँचाई”…
_ बल्कि बड़ी आसानी से कह देते हैं..- “हमें तो पहले से पता था ये ऐसा ही है”
– ” दूसरों के बदलने पर निर्णय देने से पहले, अपने बर्ताव की भूमिका को देखना जरूरी है, क्योंकि हर बगावत की जड़ में एक लंबी, अनदेखी सहनशीलता छिपी होती है.”
_ पर मेरी चिंता यह है कि.. इस अँधेरे को ही लोग रोशनी बताते हैं..!!
_ कभी-कभी लगता है कि मेरी नज़र जिस अँधेरे को साफ़-साफ़ पहचान रही है, वही अँधेरा लोगों की नज़रों में रोशनी बनकर खड़ा है.
_ और यही जगह सबसे थकाने वाली है..- जब सच मुझ पर भारी हो, पर बाकी लोग उसी को उजाला कहकर चैन से जी रहे हों.
– मैं बस इतना लिख सकता हूँ :
“क्या मैं गलत देख रहा हूँ, या लोग देखने से इंकार कर चुके हैं ?”
_ शायद जवाब समय बताए, पर अभी के लिए..
_ मैं वही देखूँगा जो सच्चा है, भले ही वो अँधेरा ही क्यों न हो.!!





