“मन का एक पल” – 2027
_ “जहाँ शब्द रुक जाते हैं, वहीं मन बोलता है…”
_ “अंदर एक गीत चल रहा है, सिर्फ सुनने के लिए – समझने के लिए नहीं.!!”
_ हर भावना शब्दों में नहीं उतरती — कुछ सिर्फ़ मौन में धड़कती हैं.
_ फिर भी लोग शब्दों की मांग करते हैं, जैसे बिना बोले भाव अधूरे हों.
_ पर सच्ची समझ तो वहीं शुरू होती है, जहाँ शब्द ख़त्म हो जाते हैं.!!
“क्या मैं या और लोग बातों के पीछे छिपी भावना को महसूस कर पाते हैं, या सिर्फ़ शब्दों को ही सुनते हैं ?”
कभी-कभी जो लोग हमें तोड़ते हैं, वे अनजाने में हमें अपने असली आधार की ओर लौटा देते हैं — वो आधार जो किसी व्यक्ति पर नहीं, बल्कि अपने भीतर की स्थिरता-शांति पर टिका होता है.
— किसी के लौटने या न लौटने से उसका मूल्य नहीं घटता”
_ हर बात बताना, हर हाल साझा करना — ये सब थकाने लगता है.
_ ठीक होना, हमेशा बताने से नहीं आता —
कभी-कभी सिर्फ खुद के साथ रह जाने से आता है.!!
_ चाहे आप उन्हें बाहर निकालने की कितनी भी कोशिश करो,
_ लेकिन वे हमेशा घूम फिर कर उसी जगह वापस पहुँच जाते हैं.!!
— कुछ लोग अपने भीतर की नकारात्मकता से कभी मुक्त नहीं हो पाते.
_ चाहे आप उन्हें कितना भी संभालें, समझाएँ या अवसर दें,
_ वे फिर उसी गंदगी, उसी मानसिकता में लौट जाते हैं..
— क्योंकि परिवर्तन इच्छा से नहीं, चेतना से आता है.
_ यह बहुत भारी है—उनसे वो बातें न कह पाना.. जो मै कहना चाहता हूँ..
_ क्योंकि वे हमेशा कुछ और ही चुनेंगे और मुझे इस बात का पछतावा रहेगा कि मैंने उन्हें कुछ कहा ही क्यों था.!!
“क्या मैं दूसरों को बदलने की कोशिश में अपनी शांति खो देता हूँ ?”
_ कभी-कभी बुद्धिमानी यही होती है — कि हम देख कर भी दूरी बनाए रखें.!!
_ पर भीतर जो सच्चाई शांत है, वही मेरा असली घर है.
_ आज खुद से पूछूँ —
_ क्या मैं अब भी उस भीतर वाले हिस्से से जुड़ा हूँ, या मुस्कान ही मेरा चेहरा बन चुका है ?
_ इस दुनिया में जीना आसान नहीं, इसलिए मैंने अपने चारों ओर मुस्कान का एक आवरण बुन लिया है.
_ उसके पीछे मेरे दुःख और वेदनाएँ गहराई में सोए हैं.
_ लोग सोचते हैं मैं खुश हूँ, क्योंकि मैं वही दिखाता हूँ जो वे देखना चाहते हैं —
_ अब लोगों को सच्चाई नहीं, दिखावा भाता है.!!
— “अब मैं बस अपने साथ हूँ, और यही काफी है”
_ अब किसी के साथ रहने की ज़रूरत महसूस नहीं होती.
_ मैंने जाना है कि सुकून किसी और से नहीं, खुद से मिलता है.
_ जब मैं दूसरों के लिए सुकून बन सकता हूँ, तो अपने लिए क्यों नहीं ?
_ अब मुझे अपने आस-पास का शोर नहीं चाहिए —
_ क्योंकि मैंने समझ लिया है,
_ हर चीज़ और हर इंसान को बचाना ज़रूरी नहीं होता.
_ कुछ लोग अपने रास्ते खुद चुनते हैं,
_ और मैं बस अपने को सुरक्षित रखने का चयन करता हूँ.
_ अब कोई मुझसे बात करे या न करे — फर्क नहीं पड़ता.
_ मेरे भीतर खुद को ठीक करने की पूरी शक्ति है.
_ मुझे किसी अतिरिक्त मदद की ज़रूरत नहीं,
_ और मैं किसी से यह उम्मीद भी नहीं रखता..
_ मैंने अपनी सीमाएँ तय कर ली हैं —
_ आप अपने घेरे में रहो, मैं अपने में..
_ “अब मैं ऐसा ही हूँ” —
_ एक ऐसा इंसान जो अकेले भी संपूर्ण है,
_ जो खुद की देखभाल करना जानता है,
_ और इस बात पर गर्व करता है कि..
_ वह अब अकेला नहीं, बल्कि पूर्ण है.!!
_” कब से मैं दूसरों की अपेक्षाओं, ज़िम्मेदारियों और बेचैनियों के बीच खुद को खोता जा रहा हूँ ?
_ आज एक सवाल अपने भीतर रखता हूँ — क्या मैं अपने लिए एक घूंट सुकून निकाल पा रहा हूँ… या बस जीने की आदत निभा रहा हूँ ?
_ जीवन चाहे जितना व्यस्त, उलझा या पीड़ादायक क्यों न हो — इंसान को अपने लिए कुछ पल सुकून के ज़रूर निकालने चाहिए.
_ इतना बोझिल भी नहीं होना चाहिए जीवन कि खुद के भीतर ठहराव का एक घूंट भी न मिल सके.
_ वो कुछ क्षण — जब हम सिर्फ अपने साथ हों — वही सबसे सच्ची विश्रांति है.!!
_ “क्या मैं अपने भीतर की थकान को सुनता हूँ, या उसे हर बार काम की आवाज़ों में दबा देता हूँ ?”
_ कभी-कभी जीवन इस कदर व्यस्त कर देता है कि मन और शरीर के बीच का रिश्ता ढीला पड़ जाता है.
_ शरीर और सिर में दर्द बन जाता है — मन की अनकही थकान का संदेशवाहक.
_ फिर भी मुस्कुराता हूँ, क्योंकि ज़रूरत है ; बोलता हूँ, क्योंकि भूमिका निभानी है — पर भीतर कहीं एक शून्य धीरे-धीरे फैलता जाता है.
_ पर शायद यही खालीपन मुझे भीतर झाँकने का अवसर देता है.
_ क्योंकि जब सब कुछ ठीक होते हुए भी कुछ अधूरा लगता है, तब आत्मा फुसफुसाती है — “थोड़ा ठहर, ज़रा अपनी ओर भी लौट”
_ थोड़ा समय खुद के लिए, बिना किसी उद्देश्य के — सिर्फ़ होने के लिए..
_ वही क्षण, शायद फिर से जीवन की साँस बन जाए.
“क्या मैं अपने भीतर की थकान को सुनता हूँ, या उसे हर बार काम की आवाज़ों में दबा देता हूँ ?”