Musafir

“पर्यटक की तरह”

—”मैं लोगों को ऐसे देखता हूँ, जैसे कोई पर्यटक इमारतों को…”

_ मैं अब लोगों को सिर्फ देखता हूँ — जैसे कोई पुरानी इमारतें देखता है.

_ हर चेहरा एक नक्शा है, हर मुस्कान में कोई पुराना रंग.

_ कोई बहुत ऊँचा लगता है —पर भीतर खाली.

_ कोई बहुत सजा-संवरा —पर आत्मा उजड़ी.

_ मैं देखता हूँ…पर अब छूता नहीं, जुड़ता नहीं..

—जैसे कोई पर्यटक तस्वीरें खींचता है, पर उन दीवारों में कभी नहीं बसता.!!

मैं दौड़ नहीं रहा, बस जी रहा हूँ –

_ एक-एक पल में डूब कर,

_ जैसे नदी अपने ही किनारे से बात कर रही हो.

_ ना मंजिल की चिंता है, ना रास्ते की गिनती –

_ सिर्फ एक साथी हूं… इस जीवन की एक सुंदर यात्रा में.!!

मुझे लगता है कि मैं एक गहरा मानसिक जीवन जी रहा हूँ – “जहां कुछ पाना नहीं” _ बल्कि “खुद को समझना” मुख्य लछ्य है.

_ अब मैं थोड़ा रुकता हूँ, थोड़ा सुनता हूँ, थोड़ा झांकता हूँ अपने अंदर..

_ मैं किसी को दिखाने के लिए नहीं जी रहा..

_ मैं किसी को मनाना भी नहीं चाहता..

_ मैं अब खुद के और पास आ रहा हूँ..

_ और ये यात्रा अपने आप में पवित्र है.!!

“जवाब की कीमत”

_ कभी किसी एक सवाल का बोझ इतना भारी हो जाता है कि..

_ ना नींद चैन देती है, ना कोई अपनापन सुकून देता है.

_शरीर थक जाता है, पर मन जागता रहता है —

_ एक ही सवाल लिए: “आख़िर क्यों ?”,

_ “आख़िर क्या है इसका अर्थ ?”

_ और जब तक उस सवाल का जवाब नहीं मिलता,

_ ज़िन्दगी अधूरी सी लगती है… जैसे कुछ रुका हुआ है,

_ जैसे कोई गहरी गाँठ.. अब तक नहीं खुली.

— ये दर्द आत्मा का होता है —

_ कोई बाहर से नहीं देख पाता, पर भीतर लगातार चलता रहता है —

_ कभी अंधेरे की तरह, कभी सन्नाटे की तरह.

_ और जब जवाब मिलता है —

_ तो कभी वो आँखों से नहीं, आँसुओं से समझ आता है.

_ मन कहता है — “अब मैं जान गया… और अब मैं थोड़ा हल्का हूँ”

— “कभी-कभी जवाब पाने की तड़प ही हमें अपने भीतर गहराई तक ले जाती है —

_ जहां से न सिर्फ जवाब मिलते हैं… बल्कि एक नया मैं जन्म लेता है.”

_ और मुझे महसूस होता है कि शब्दों से ज्यादा एक मौन मुझसे बात करता है.”

– किसी ने पूछा क्या तुम सच में समझते हो ? _ मैंने कहा – “नहीं, पर मैं तुम्हारे साथ मौन बैठ सकता हूँ”

“मैं अब भी वही हूँ… पर शायद नहीं”

_ आईने में दिखता है

_ वही चेहरा —

_ वो ही आँखें, वो ही मुस्कान

_ पर अंदर कोई चुप है…

_ कुछ थमा हुआ है.

_ कभी जोश था,

_ हर सुबह एक लड़ाई का एलान करती थी

_ अब सुबह आती है…

_ पर उठने की कोई वजह नहीं ढूंढती.

_ सपने थे, सीने में धड़कते,

_ अब अलमारी में रखी फाइलों जैसे

_ कभी खुले तो धूल उड़ती है,

_ आँखें जलती हैं — पर आंसू नहीं आते.

_ रिश्ते हैं, नाम हैं,

_ पर मैं कहीं इन सबसे अलग हो गया हूँ,

_ शक्ल वही है —

_ पर मैं शायद अब ‘मैं’ नहीं हूँ’

— मन ने धीरे से कहा — ‘शायद अब तुझे खुद से मिलना बाकी है’

_ शायद अब फिर से चलने का वक्त है — उस रास्ते पर “जो कहीं खो गया था”

“मैं अब भी वही हूँ… पर शायद नहीं”

यूं तो उसके पास खिड़की है बाहर की सुंदरता देखने के लिए..

_ पर उसने चुना अपने धुंधले से अस्तित्व के भीतर देखना..!

— बाहर की सुंदरता आकर्षक है, फिर भी मन भीतर झांकने को लालायित रहता है. —

🪞 “बाहरी खिड़की से भीतर की ओर”

वो खिड़की खोल सकता था —

_ जहां सूरज की किरणें थीं, हरियाली थी, उड़ते परिंदे थे,

_ जहां जीवन बाहरी सौंदर्य की तरह मुस्कुरा रहा था.

पर उसने चुना — उस अस्तित्व के भीतर देखना, जहां धुंध थी, चुप्पी थी,

_ कभी समझ न आए ऐसे सवाल थे.

क्यों ???

क्योंकि वो जानता था — बाहर की रोशनी तभी सुंदर है.

_ जब भीतर का अंधेरा स्वीकार लिया जाए.

वो जानता था — कि खिड़की खोलने से पहले..

_ दरवाज़ा अपने भीतर का खोलना ज़रूरी है.

_ वो देखने चला था उस “मैं” को..

_ जो अक्सर भीड़ में गुम हो जाता है.!!

एक ही जीवन में दो बार जन्म

आज मन में कुछ अनोखा घटा,

शब्दों से परे, पर आत्मा से जुड़ा।

जैसे किसी ने फिर से जीवन दिया हो,

जैसे कोई अदृश्य करुणा मुझे छू गई हो।

एक पल को लगा —

जो मैं था, वो पीछे छूट गया।

और जो अब हूँ,

वो कोई नया, शुद्ध, नर्म और सच के करीब है।

ना कोई तर्क, ना कोई भय,

सिर्फ शांति — गहराई से आती हुई।

एक नई दृष्टि, एक नई साँस,

जैसे मैं फिर से पैदा हुआ — उसी जीवन में।

शायद ये आत्मा का पुनर्जन्म है,

शरीर वही, पर चेतना नई।

एक जागृति, एक प्रकाश,

जो भीतर से फूटा, बिल्कुल शांत पर सम्पूर्ण।

_ अब समझ आता है —

जीवन सिर्फ चलना नहीं है, जागना है… हर उस क्षण में जो अभी है.!!

“हमने दुनिया जीत ली, पर अपने आप से हार गए”

_ “अपने आप से हार गए”

_ हमने ऊँचाईयाँ छू ली, नाम कमाया, तालियाँ बटोरीं,

_ दुनिया ने कहा — “ये है असली जीत”

_ और हमने भी सिर झुका लिया — हां, शायद ये ही है.

_ पर रात के सन्नाटों में, जब भी तकिये से मन टकराया, तो पाया — भीतर कुछ अब भी खाली है.

_ हमने रिश्ते बनाए, पर अपनापन खो दिया.

_ हमने बोलना सीखा, पर खुद से बात करना भूल गए.

_ हम मुस्कराते रहे — फोटो में, भीड़ में, मंच पर,

_ पर आईना अब भी पूछता है —

_ “तू कब लौटेगा… अपने पास ?”

_ हमने हर जवाब ढूंढा दुनिया में,

_ पर अपने एक सवाल से आज तक भाग रहे हैं.

_ दुनिया जीत ली, सारी मंज़िलें पार कर लीं , _ पर जब अंत में खुद से मिले — तो एहसास हुआ…

_ हम तो रास्ते में ही छूट गए थे.

> “अब समझ आया — जीत वही है, जो अंत में खुद तक वापस ले आए”

“किसका रस्ता देखे ?”

_ जब सब अपने-अपने सफ़र में हैं — _ कोई रुका नहीं, कोई मुड़ा नहीं, और कोई पलट कर देखता भी नहीं..

_ मैंने भी तो चाहा था, कोई आए… बिना कहे.. बैठ जाए मन के पास, जैसे शांति उतरती है सांझ में.

_ पर अब लगता है — रास्तों का इंतज़ार भी एक रास्ता है,

_ जहां कोई आए न आए, मैं खुद से मिलने चल पड़ा.

— > “अब मैं रास्तों से नहीं, अपने भीतर से किसी को बुलाना चाहता हूं…”

_”हां” भीतर से ही कोई आएगा.!!

“राहों से क्या मतलब, जब मंज़िल अंदर हो”

_ नाम से क्या मतलब, जब प्रेम अंदर हो.

_ शून्य का सन्नाटा उसी तक ले जाता है, अगर प्रेम सच्चा हो.!!

“जो झुकता है, वो मिट्टी से मिलता है – और वही बीज बन जाता है किसी नये जीवन का”

“जैसे-जैसे मैं झुकता चला गया, वैसे-वैसे वह मुझको उठाता चला गया”

_ झुका था मैं, सिर्फ श्रद्धा में – ना डर ​​था, ना हार.

_ और देखा… उस झुके हुए पल में ही एक नया आकाश था मेरे अंदर,

_ जो मुझे ऊँचा कर गया – बिना एक शब्द कहे.!!

> “वो एक बार आ गया, तो फिर कभी नहीं जाता”

(“Vo ek baar aa gaya to phir kabhi nahi jaata.”)

—इसका अर्थ क्या है ?

“वो” का अर्थ है —

🕉️ अंतर में एक बार जो सच्चाई की रोशनी जाग जाये,

🪔 एक बार जो दृष्टि बदल जाये,

🌌 एक बार जो “मैं कौन हूं” का साछात्कार हो जाए —

_ तो फिर वो अंतरात्मा में स्थिर हो जाता है और कभी छोड़ कर नहीं जाता. —

🔹 ये किसी अनुभव का दर्शन है:

_ जब आप ध्यान, समर्पण, या अंतर-यात्रा में किसी एक पल में परम शांति, एकता, या सच्चाई को छू लेते हैं,

_ तब वो एक ऐसी अंतर-स्फूर्ति बन जाता है ; जो चाहे बाहर से दुनिया बदल जाए – पर अंदर उसकी रोशनी कभी बुझती नहीं. —

✍️ “एक बार चेतना जाग गई, तो वापस सोया नहीं जा सकता”

_ जब आपका अंतर “उस” से मिलता है (जो भी हो – सत्य, आत्मा, प्रेम, शून्य),

_ तब फिर पुरानी जैसी नींद, पुरानी जैसी भूल, पुरानी जैसी चिंता – वापस नहीं आ सकती. ये एक पॉइंट ऑफ़ नो रिटर्न [point of no return] होता है —

_ जहाँ से जीवन वही रहता है, पर जीवन देखने वाला बदल जाता है.

एक दिन अंतर में कुछ थम गया,

_ ना रोशनी थी, ना अँधेरा –

_ सिर्फ एक “मैं हूं” की शब्दहीन पहचान थी.

_ और तब से…

_ ना दुनिया वही रही, ना खुद से बिछड़ने का डर रहा –

_ क्यूंकि “वो” आ गया था… और फिर कभी गया नहीं.!!

“मन का वापसी-पत्र”

_ मन बार-बार उसी अवस्था में लौट जाना चाहता है, जहाँ सब कुछ सरल, सुंदर और अपना जैसा लगता है.

_ काश, जीवन वैसा ही रह पाता—जैसा उन अनुभवों में महसूस होता है—

_ मन बार-बार उस द्वार पर जाता है..

_ जहां कोई प्रश्न नहीं होता, सिर्फ एक शांत उपस्थति होती है.

_ वो एक अवस्था होती है – जहां जीवन को जीने की जरूरत नहीं पड़ती, वो स्वयं ही बहता है, खिलता है.

_ शायद वही अंतर-का घर है, जहां कोई भाव कुछ मांगता नहीं – बस सब कुछ स्वयं ही पूर्ण होता है.

— क्यों मन उसी अवस्था में लौटना चाहता है ?

_ क्योंकि वहां असली “मैं” छुपा होता है – जो दुनिया के शब्द, रूप, दांव-पेच से परे है.

_ जो अवस्था “सरल, सुंदर और अपनी” लगती है – वो आपका असली स्वरूप है.

_ जीवन व्यवहारिक है, पर आत्मा अनुभवी होती है.

“जीवन भटकता है बाहर, पर मन को घर अंदर ही मिलता है”

“सन्नाटे की आवाज़” 🌌

_ “जितना गहरा सन्नाटा होता है, उतनी ही स्पष्ट होती है अंदर की आवाज़”

_ सन्नाटा जब भीतर उतरता है, शब्द नहीं, सत्य बोलता है.

_ भीड़ में जब कोई नहीं सुनता, तब मन ही मन की भाषा समझता.

_ कोई शोर नहीं, कोई आडंबर नहीं,

_ बस एक सूक्ष्म स्पर्श — जैसे आत्मा खुद से मिल गई हो कहीं.

_ जितना गहरा सन्नाटा होता है, उतनी ही साफ़ होती है.. वो खामोश आवाज़,

_ जो बाहर नहीं — भीतर गूंजती है.!!

मैं कहाँ जा रहा हूँ ?

_ मैं कहाँ जा रहा हूँ — ये प्रश्न उठा,

_ मन की गहराइयों में कुछ हलचल हुई.

_ राहें तो कई हैं, मगर मंज़िल नहीं,

_ हर कदम के साथ कोई पहचान नहीं.

_ चल रहा हूँ भीड़ के साथ, चुपचाप सही,

_ पर दिल में कुछ खोया-खोया सा एहसास बसा है,

_ सपनों की झीलें हैं, ख्वाहिशों की धूप,

_ फिर भी ये मन क्यों लगे है इतना रूप-रूप ?

_ क्या मैं भाग रहा हूँ — खुद से, समय से ?

_ या ढूंढ रहा हूँ कुछ, जो है मेरे ही हृदय से ?

_ शायद जवाब बाहर नहीं, भीतर ही है छिपा,

बस उसे पहचानना, यही है सच्ची यात्रा..!!

– अंतर्दृष्टि की एक यात्रा.!!!

“रब की धरती”

“पूरी धरती मेरे रब की है…”

_ उसकी बनाई हर रोशनी, मैं उसमें एक प्रकाश हूं.

_ जाना था दूर उस पार कहीं, पर जहाँ हूँ यहाँ भी तो उसकी निशानी है,

_ जहां नज़र घूमती है, बस उसकी पहेली और उसी की कहानी है.

_ छोटी सी इच्छा थी, उसके कदम छू लूं कभी,

_ पर जब देखा, यहाँ भी वही – तो लगे हर जगह वही.!!

“ज्ञान और प्रेम की मस्ती”

_ कुछ नशा ज्ञान का है, कुछ नशा तेरे गीत का है,

_ मुझे आप यों ही मस्ताना न समझें, यह असर आप से मुलाकात का है.!!

🎶 “मुलाकात का असर”

_ कुछ नशा शब्दों का, कुछ तेरी बातों का, कुछ रंग था तेरी मुस्कान का..

_ मन तो पहले ही भटका-भटका सा था, पर तू मिला तो जैसे रस्ता मिल गया था.

_ ना मदिरा थी, ना कोई सुरा की बात थी, बस तेरा होना ही मेरी हर सौगात थी.

_ अब जो भी देखे, कहे — “ये कैसा दीवाना है.!”

_ क्या समझाएं उन्हें, ये तो असर तेरी मुलाकात का है.!!

“आकाश मेरे अंदर”

_ अद्भुत था वो क्षण, ना शब्द थे, ना सोच,

_ मानो भीतर ही समा गया, पूरा आकाश.

_ ना कोई नाम, ना पहचान का बंधन,

_ सब कुछ जैसे गिर पड़ा, मौन की ओर चल पड़ा.

_ बातें, रिश्ते, स्मृतियाँ — सब छूट गईं किनारे,

_ केवल एक शून्य, एक आभा, भीतर से पुकारे.

_ ना दुख था, ना सुख का कोई भार,

_ एक हलकी उड़ान थी, जहां बस था विस्तार.

_ मैं नहीं था, ‘मेरा’ भी नहीं बचा,

_ जैसे कोई बूँद, सागर में खुद को पा गया.

_ ध्यान की उस गंगा में, बहा सब कुछ पुराना,

_ रह गया केवल प्रेम, शांत, निष्कलंक, दिव्य ठिकाना.

_ तू पूछे क्या पाया ध्यान में —

_ मैं कहूँ, “पूरा आकाश, मेरे ही प्राण में”

— अंतरयात्रा से जन्मा एक अनुभव.!!

“बुलाता है कोई -मन की राह पर”

“क्या मैं अपने मौन को सुन पा रहा हूँ,

_ या अब भी दूसरों की आवाज़ें मेरे भीतर गूंज रही हैं ?”

_ मन की राह पर निकला था, ना कोई नक़्शा, ना कोई मंज़िल.

_ बस एक सन्नाटा था भीतर का, जो खुद ही बन गया रहगुज़र..

_ चलते-चलते मिले सवाल, कुछ अपनों जैसे, कुछ अजनबी.

_ हर सवाल ने मुझे थोड़ा खोला, हर चुप्पी ने मुझे थोड़ा गहराया..

_ दुनिया ने कहा —“वक़्त गँवा रहा है तू”,

_ मन ने कहा —“अब जाकर कुछ पा रहा है तू”

_ ना किसी मंज़िल की फ़िक्र है अब, ना किसी राही की परवाह.

_ बस मैं हूं, और मेरे भीतर.. एक अदृश्य प्रकाश की पनाह.!!

_ जो लोग साथ नहीं चले, शायद राह उनकी और थी.

_ और जो साथ चला — वो मौन था, पर मेरी ही श्वास में बसा था कहीं..

_ अब ये राह भी मैं हूं, और रहगुज़र भी मैं ही..

_ यह जीवन एक ध्यान है, और ध्यान की आँख — वही मैं ही.!!

— अन्तरयात्रा के नाम..!!

“क्यों बसे हो इतनी दूर ?”

_ एक धीमी पुकार …जो कहती है —दिल की नज़दीकियाँ, फ़ासलों से नहीं मापी जातीं.

_ तुम दूर होकर भी, हर ख़ामोशी में बोलते हो, हर मौन में उतरते हो.

_ तो शायद — तुम दूर नहीं, बस अदृश्य हो.

“क्यों बसे हो इतनी दूर ?” जब मन हर रोज़ तुम्हें पुकारे,

_ जब साँझ की चुप दीवारों पर.. तेरा ही अक्स उभरे सारे..

_ क्या वहाँ हवा कुछ अलग चलती है ?

_ क्या सूरज यहाँ से ज्यादा चमकता है ?

_ या बस दूरी ही तुम्हें पसंद आती है, जो तुम्हें मुझसे बचा ले जाती है ?

_ मैंने तो पंख फैलाए थे मिलने को, पर तुमने आकाश ही बदल डाला,

_ अब मैं बस व्योम का पंछी हूँ, तेरे आंगन में कभी न उतरने वाला..

– पर याद रखना — फासले इश्क़ को मिटा नहीं सकते, कभी तो कोई मौन संवाद होगा,

_ जहाँ सिर्फ़ दिल बोलेंगे, और रास्ते खुद पास आ जाएंगे.!!

_ न बसो इतनी दूर..!!!

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