Kaynat

“किरदार और मुखौटे”

_ मैं तो अपने किरदार में ही रहना चाहता था और चाहता हूँ,

_ पर क्या करूँ ? लोग मुखौटा मांगते और चाहते हैं.

_ कभी-कभी लगता है, मेरा अपना असली रूप ही लोगों को कम पड़ जाता है.

_ मैं जितना सरल होकर जीना चाहता हूँ — उतना ही दुनिया मुझे किसी और रूप में देखना चाहती है.

_ लोग अक्सर मुखौटे मांगते हैं, क्योंकि सच्चाई उन्हें असहज कर देती है.

_ और मैं अपने किरदार में रहना चाहता हूँ, क्योंकि वही मेरा सत्य है, वही मेरा सुकून है.

_ शायद यही संघर्ष है..- दुनिया की अपेक्षाओं और अपने भीतर की सच्चाई के बीच.

_ लेकिन दिन के अंत में, मैं खुद से यही पूछता हूँ :

_ क्या मैं अपनी आत्मा के प्रति ईमानदार हूँ ?

_ अगर हाँ…- तो भले ही दुनिया मुखौटे चाहे,

_ मैं अपने किरदार में ही रहूँगा… क्योंकि वही मेरा घर है.!!

“वो मैं नहीं”

_ जब दर्द बहुत होता है, तो दिमाग पूरी ज़िंदगी को दर्द के रंग में रंग देता है.

_ लेकिन : दर्द स्थायी नहीं है.. कारण पहचाना जा चुका है, समाधान कल तय है.

_ अभी जो विचार आ रहे हैं, वो दर्द के साथ आए हुए मेहमान हैं..- “वो मैं नहीं”

_ मुझे इतनी समझ होने के बाद भी मैं इतना टूट क्यों रहा हूँ ?

_ क्योंकि समझ दिमाग की ताकत है और दर्द नर्वस सिस्टम की..

_ दुःख- बीमारी ज़िन्दगी को बुरा नहीं बनाते, बस उसे कुछ समय के लिए धुंधला कर देते है.. ‘और धुंध छँटती है’

कभी-कभी इंसान चुपचाप सहता रहता है..- बातें, व्यवहार, उपेक्षा… जब तक उसके भीतर की सीमा टूट नहीं जाती.

_ और जिस दिन वह अपनी तकलीफ़ के खिलाफ खड़ा होता है, लोग उसके बदलाव का कारण अपने भीतर नहीं देखते.

_ वे यह नहीं कहते कि “शायद हमारे ही व्यवहार ने इसे चोट पहुँचाई”…

_ बल्कि बड़ी आसानी से कह देते हैं..- “हमें तो पहले से पता था ये ऐसा ही है”

– ” दूसरों के बदलने पर निर्णय देने से पहले, अपने बर्ताव की भूमिका को देखना जरूरी है, क्योंकि हर बगावत की जड़ में एक लंबी, अनदेखी सहनशीलता छिपी होती है.”

मुझे गहरा अँधेरा दिखता है.!

_ पर मेरी चिंता यह है कि.. इस अँधेरे को ही लोग रोशनी बताते हैं..!!

_ कभी-कभी लगता है कि मेरी नज़र जिस अँधेरे को साफ़-साफ़ पहचान रही है, वही अँधेरा लोगों की नज़रों में रोशनी बनकर खड़ा है.

_ और यही जगह सबसे थकाने वाली है..- जब सच मुझ पर भारी हो, पर बाकी लोग उसी को उजाला कहकर चैन से जी रहे हों.

– मैं बस इतना लिख सकता हूँ :

“क्या मैं गलत देख रहा हूँ, या लोग देखने से इंकार कर चुके हैं ?”

_ शायद जवाब समय बताए, पर अभी के लिए..

_ मैं वही देखूँगा जो सच्चा है, भले ही वो अँधेरा ही क्यों न हो.!!

कइयों को लगता है कि नसीब अच्छा है मेरा,

_ मगर उन्हें ये नहीं पता कि मेहनत जानलेवा थी.!

– “लोग मेरी मंज़िल देखते हैं, मेरा रास्ता नहीं.

_ उन्हें चमक दिखती है, वह अँधेरा नहीं जिसमें रोज़ खुद को घसीटकर आगे बढ़ाना पड़ा.

_ नसीब जैसा जो दिखता है… वह असल में उन अनगिनत थकानों, टूटनों और फिर संभलने की कोशिशों का परिणाम है.

_ मेहनत ने मुझे हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा मारा भी… और गढ़ा भी.

_ _ आज जो मैं हूँ, वह किसी सौभाग्य का नहीं, मेरे संघर्षों का फल है.”

“जो अपनी धुन में जीना सीख लेता है..- उसे दूसरों की पसंद की ज़रूरत नहीं रहती.”

_ वह अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का सामर्थ्य रखता है.”

_ अक्सर चोट अंजान लोगों से नहीं, अपने कहे जाने वालों से लगती है.

_ क्योंकि जो लोग आपको बचपन से जानते हैं, वे आपको बदलते हुए देखने के आदी नहीं होते.

_ इसलिए जब आप हटकर जीने लगते हैं, बहस से दूरी रखते हैं, और अपने ढंग से सोचते हैं, तो उन्हें लगता है.. आप उनसे दूर हो गए, अजीब हो गए, या अहंकारी हो गए.

_ जबकि हकीकत यह है..- आपने सिर्फ अपनी सीमा पहचान ली है.

_ रिश्तेदारों के साथ यह और कठिन होता है, क्योंकि वे आपको समझना नहीं, पहचान के पुराने साँचे में फिट करना चाहते हैं.

_ इसलिए यहाँ एक शांत तरीका काम आता है :

_ उन्हें बदलने-समझाने की कोशिश मत कीजिए.

_ और यह स्वीकार कर लीजिए कि.. हर रिश्ता गहराई के लिए नहीं होता.

_ आपका काम है, अपना आत्मसम्मान बनाए रखना.!!

“अब मुझे किसी को कुछ साबित नहीं करना, बस अपना ख्याल रखना है.”

_ हमें “क्या करना चाहिए”.. या “क्या नहीं करना चाहिए”- वो दिखना चाहिए..

1) अक्सर “क्या नहीं करना है” ज़्यादा साफ़ दिखता है.

_ क्योंकि : जो चीज़ मन को अशांत करे, बोझिल बनाए, झूठी लगे..- वो तुरंत महसूस हो जाती है.

_ गलत दिशा पहले पहचान में आती है, सही रास्ता धीरे-धीरे खुलता है,,

_ इसलिए जीवन में शुरुआत अक्सर ऐसे होती है :- यह नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं… और इसी छँटाई से रास्ता बनता है.

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2) फिर “क्या करना है” कब दिखता है ?

_ जब : गैरज़रूरी चीज़ें हट जाती हैं.

_ शोर कम होता है, तुलना और साबित करने की चाह ढीली पड़ती है.

_ तब जो बचता है.. वही आपका काम बन जाता है.

_ उसके लिए ज़ोर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती..- वो अपने आप खिंचता है.

_ रास्ता दिखने से पहले, भटकन का बोझ उतरना ज़रूरी है.

_ हमारी परिपक्वता यही होनी चाहिए कि करने की लिस्ट से ज़्यादा, न करने की स्पष्टता खोजें.

_ और यही खोज धीरे-धीरे हमें “स्वाभाविक जीवन” तक पहुंचाती है.!!

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