“इंसानियत गंवा रहे हैं हम.!!”
_ खूब तरक्की कर रहे हैं ना हम… खुद को झोक दिया है पैसा कमाने के लिए घर में सुख सुविधा भरने के लिए.. जब की अंदर से मन खाली है.
_ कहां से कहां पहुंच गए विकास के नाम पर.. हमे पता ही नही पीछे क्या छूट रहा है ???
_ कुछ रेत की तरह मुट्ठी से फिसल रहा है …जिसे सब हम जान रहे हैं…
_ जीवन की दौड़ इतनी तेज हो गई है कि उसको बचाने की चाहत रही नहीं है किसी में…वो है. ” हमारे अंदर की भावनाएं”
_ पहले पड़ोसी के घर में भी कुछ होता था ना उनके साथ साथ अगल-बगल रोज दुखी हो जाते थे …अब तो कोई फर्क नहीं पड़ता …
_ सीधी सी बात है.. सीधा सा कहना है लोगों का… अपने काम से मतलब रखिए ज्यादा अच्छा रहेगा भैया.. हम तो किसी के बीच में बोलते नहीं है..
_ और यह चीज अनायास …बोलते बोलते प्रथा के रूप ले रही है,
_ जबकि वास्तव में अगर हम इंसान है तो, इंसान को इंसान की जरूरत पड़ेगी ही…
_ हम समझ नहीं रहे हैं, हम क्या दे रहे हैं… अपने अगली पीढ़ी को… नकलीपन… अकेलापन… एकाकीपन..!!
_ जाने अनजाने हम उनको स्वार्थी बना रहे हैं खुद को स्वार्थी बन रहे हैं और आधुनिकता के नाम पर अपने आप को हमने मशीन बना लिया है …
_ जहां हम हर बात का हिसाब रखने लगे हैं हंसने का भी रोने का भी…
_ कब हमें हंसना है और कब हमें रोना है..
_ इतने हम प्रैक्टिकल हो गए हैं कि अपने इमोशंस को दिखाने में भी डरने लगे हैं कि लोग क्या कहेंगे और कहीं ना कहीं हमें भी दूसरों के भावनाएं नकली और कागजी लगने लगी हैं…
_ चीजों को तो हम बचा रहे हैं… इंसानियत गंवा रहे हैं.!!