पाकीज़गी की बात यूं ही नहीं कही जाती, गंदगी चाहे करने में हो, कि सोचने में हो, रहने में हो कि कहने में हो, ज़िंदगी को सड़ा दिया करती है.
किसी व्यक्ति के भीतर की गंदगी तभी धूल सकती है,
_ जब वो ये स्वीकार करे कि उसके भीतर कोई गंदगी है.
_ जब वो ये स्वीकार करे कि उसके भीतर कोई गंदगी है.