अक्सर मनुष्य का आचरण दूसरों की अपेछाओं के दबाव के कारण सहज नहीं रह जाता. हम अपनी सोच को अथवा अपने विचारों को पहले दूसरों की आशाओं के तराजू में तोलते हैं और फिर उन्हें प्रस्तुत करते हैं. हम हर विषय पर सोच- विचार कर वही प्रतिक्रिया देते हैं जिसकी हमसे उम्मीद की जाती है, न कि वो जो हमारे अंदर स्वभावतः आती है. और इस प्रकार हम धीरे- धीरे एक झूठा आवरण ओढ़ लेते हैं जिसके पश्चात हम अपना नैसर्गिक स्वभाव भी खो देते हैं. अपेछाओं का जंजाल उस दलदल की भांति है जिसमे यदि मनुष्य फंस जाये तो फिर उस से बाहर आना मुश्किल हो जाता है. यह ध्यान दें कि कहीं आप इस दलदल में पैर तो नहीं दे रहे ? कोशिश करें कि आप अपने स्वाभाविक व्यवहार को बनाये रख सकें.