मन…
कभी कभी समझ ही नही आता कि ‘मन क्या चाहता है’,
_ कभी भीड़ में खुश है, तो कभी तन्हाई पसंद ,
_ कभी किताबों में खोया, तो कभी दर्द भरे गीतों में गुम,
_ कभी करता हैं चीखें जोर जोर से, और कभी मन है कि जरा सी आहट भी न हो,
_ कभी मीठा सा झरना, मन ही मन मुस्कुराता सा,
_ कभी इतना खिन्न जैसे, नीम की कड़वाहट लपेटा हुआ सा,
_ कभी खामोश सर्द रात के सन्नाटों जैसा, तो कभी जून की गर्मी लिए चकाचौंध सा,
_ कभी बंद आंखो की सिलवट सा सहज, तो कभी छन छन बजती पाजेब सा उद्दंडी,
_ कभी बच्चा सा कोई हठ ले बैठा हो जैसे,
_ कभी प्रौढ़ जैसा कि इशारे तक समझ जाए..!!
_ ख़ैर…
जब हम बुरे लोगों के साथ रहते हैं तो हमारा मन खराब हो जाता है.
_ अपने मन से बुरे लोगों को निकाल दीजिए, आराम मिलेगा.!!
एक भटकता मन दुखी मन है और दुखी मन से आपको गलत सुझाव ही मिल सकते हैं.
_ इसीलिए सबसे पहले आपको अपने मन को शांत करना होगा..
_ क्योंकि यही आपको शांति दिलाएगा.!!
क्या है ? “मन का स्थिर होना”
मन के स्थिर होने की एक सूक्ष्म चेक-लिस्ट [check-list] :(अंतर से पहचान)
संकेत क्या आप महसूस करते हैं ?
स्थिरता का अर्थ यह नहीं कि मन हमेशा सोचना बंद कर दे, बल्कि ये है कि ये अब :
_ क्षोभ [irritation] से परे हो जाता है, तुरन्त प्रभावित नहीं होता..
_ बिना कारण के चंचल रहने की आदत छोड़ देता है और जो भी आए-जाए –उसे सिर्फ दिखता है, चिपकता नहीं..
> “स्थिर मन” एक झील जैसा होता है – जिसमें कोई पत्थर डाले तो हलचल तो होती है, पर वो तुरत शांत हो जाता है.
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क्या मन एक बार स्थिर [stable] हो जाए तो कभी अस्थिर [Unstable] नहीं होता ?
नहीं – मन की प्रकृति ही चंचल है.
_ लेकिन जब एक साधक उसे समझ जाता है, तो मन के अस्थिर होने पर भी वो स्वयं अस्थिर नहीं होता.
_ यानी, मन कभी कभी अस्थिर तो हो सकता है, लेकिन आप उस अस्थिरता के साथी नहीं, साक्षी बन जाते हो.
> स्थिर होना एक अवस्था नहीं – एक स्थिर दृष्टि का नाम है.


1. मन अपने आप शांत हो जाता है आपको मन को रोकने की कोशिश नहीं करनी पड़ती.
2. बिना वजह चिंता नहीं होती अचानक बेचैनी या कल्पना की भरमार नहीं होती.
3. बुरा बोलने वाले प्रभावित नहीं करते आप प्रतिक्रिया [reaction] के बजाय सिर्फ निरीक्षण [observe] करते हैं.
4. आप हर दिन कुछ देर मौन में रह सकते हैं और बिना मन-बहलान [entertainment] के कुछ देर बैठना सुखद लगता है.
5. विचार आते हैं, पर चिपकते नहीं.. सोच आई और चली गई – जैसे बादल आसमान में.
6. आप तुरंट नहीं टूटते या भटकते.. इमोशनल [Emotional] हलचल में भी आप स्वयं को संभाल लेते हैं.
7. आपका मन स्नेह, दया और आभार से भरा रहता है – रंजिश से ज्यादा संवेदना रहने लगती है.
> “मन के स्थिर होने की पहचान ये नहीं कि विचार नहीं आते,
– बल्कि ये है कि अब उन विचारों के आने से मैं हिलता नहीं हूं”
“” ना मन को रोका, ना डांटा, _ सिर्फ उसे देखा – जैसे जल में चंद्रमा.
_ और धीरे-धीरे वो स्वयं शांत हो गया, – जैसे कोई अपने घर लौट आया हो””
“मन का रुख”
“दिमाग बोला – सोच ले पहले,”
“दिल बोला – महसूस कर ले…”
_ मन खड़ा था दो राहों पर, एक थी शांति – एक थी उलझन से भरी..
_ जब मन ने दिल की धड़कन सुनी, चुप सा हो गया..
_ ना सोच, ना डर, ना कोई बात थी, सिर्फ एक गहरा, मौन का साथ था.
तब समझा– मन वही है, जिसका रुख जैसा हो जाये,
_ या तो साथी बन जाए, या तो भटकता ही जाए.!!
_ एक ही मन होता है, पर उसका रुख बदलता है ;
_ जब वो दिमाग के नीचे होता है, तो अशांत रहता है ;
_ जब वो दिल के साथ होता है, तो शांत हो जाता है ;
_ और जब वो आत्मा के साथ हो जाता है, तब सब कुछ प्राकृतिक रूप से सही हो जाता है __बिना प्रयास के..!!
””दिल की बात सुनने के बाद मन चुप हो जाता है – दिमाग की बात सुनने के बाद मन और बोलने लगता है””
“मन का वापसी-पत्र”
_ मन बार-बार उसी अवस्था में लौट जाना चाहता है, जहाँ सब कुछ सरल, सुंदर और अपना जैसा लगता है.
_ काश, जीवन वैसा ही रह पाता—जैसा उन अनुभवों में महसूस होता है—
_ मन बार-बार उस द्वार पर जाता है..
_ जहां कोई प्रश्न नहीं होता, सिर्फ एक शांत उपस्थिति होती है.
_ वो एक अवस्था होती है – जहां जीवन को जीने की जरूरत नहीं पड़ती, वो स्वयं ही बहता है, खिलता है.
_ शायद वही अंतर-का घर है, जहां कोई भाव कुछ मांगता नहीं – बस सब कुछ स्वयं ही पूर्ण होता है.
— क्यों मन उसी अवस्था में लौटना चाहता है ?
_ क्योंकि वहां असली “मैं” छुपा होता है – जो दुनिया के शब्द, रूप, दांव-पेच से परे है.
_ जो अवस्था “सरल, सुंदर और अपनी” लगती है – वो आपका असली स्वरूप है.
_ जीवन व्यवहारिक है, पर आत्मा अनुभवी होती है.
“जीवन भटकता है बाहर, पर मन को घर अंदर ही मिलता है”