इसका एकमात्र कारण यह है कि हमारे जीवन का लेंस इतना संवेदनशील है कि हमारे सामने जो भी दृश्य आते हैं, वह तुरंत उसे ग्रहण कर लेता है. यह एक ऐसा लेंस है, जो अपने पास एकत्र सभी पुराने चित्रों को मिटा देता है. उसके बाद इसका परिणाम यह होता है कि हमारे मस्तिष्क पर बनने वाला वर्तमान चित्र तो स्थायी हो जाता है, लेकिन उसके पहले के सभी चित्र गौण हो जाते हैं. जैसे स्मृतियों का लोप हो गया हो. यही कारण है कि संत- महात्माओं के मीठे और आध्यात्मिक विचारों से भरे प्रवचनों का प्रभाव हमारे जीवन पर स्थिर नहीं हो पाता है. जब हम ग्रंथों को पढ़ते और प्रवचन सुनते हैं, तो उस छण तो हम उन सभी बातों को अपने जीवन में उतार लेते हैं, लेकिन जैसे ही उस जगह से हटते हैं, इस संसार के विकार, इसकी दुष्प्रवृत्तियां, सांसारिक मोह, ममता और अहंकार आदि ये सभी चीजें फिर से हमारे चारों और खड़ी हो जाती हैं.
हम अनेक संतों- महात्माओं के प्रवचन सुनते हैं, उनका आशीर्वाद ग्रहण करते हैं और ग्रंथों का अध्ययन करते हैं, धार्मिक, अनुष्ठान तथा अन्य पूजा- पाठ करते हैं,लेकिन इन सब त्योहारों अथवा किसी धार्मिक आयोजन से बाहर आते ही हमारा जीवन पुनः उसी ढर्रे पर आ जाता है, जैसा हमारे उस आयोजन में जाने से पहले था. हम जैसे पहले थे, वैसे ही दोबारा हो जाते हैं.
ऐसा इसलिए होता है कि हम सत्संग केवल सुनते हैं. मेरे ख्याल से ऐसा करने से कोई फायदा नहीं, अपितु समय की बरबादी ही है. इसलिए अगर आप सत्संग का सही उपयोग करना चाहते हैं, तो सत्संग को सिर्फ सुनें ही नहीं, अपितु उसे साधें भी, सत्संग सुनते समय उसे अपने जीवन से जोड़ कर देखें और उसके विचारों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें.
– आचार्य सुदर्शन
किसी के द्वारा चोट लगने से बचने के लिए उन्होंने अपने चारों ओर मोटी चमड़ी बना ली है,
लेकिन इसकी कीमत बहुत ज्यादा है. उन्हें कोई दुख नहीं पहुंचा सकता, लेकिन कोई उन्हें खुश भी नहीं कर सकता.
Millions of people have decided not to be sensitive.
They have grown thick skins around themselves just to avoid being hurt by anybody.
But it is at great cost. Nobody can hurt them, but nobody can make them happy either.
We often add to our pain and suffering by being overly sensitive, over-reacting to minor things, and sometimes taking things too personally.