आसक्ति बंधन है,बेड़ियां है…आसक्ति बंधे रहने को विवश करती है.
_ जिस क्षण आसक्ति मिटी…बंधन छूटा…बेड़ियां कटी…उसी पल हम आज़ाद हो जाएंगे.
_ किसी का हमारे जीवन में चले आना जितना स्वाभाविक है…उतना ही स्वाभाविक है उसका हमारे जीवन से चले जाना भी.
_ गीता कहती है कि ख़ुशी के क्षण में न तो अतिउत्साहित होइए न ही दुःख में अति व्याकुल..
_ लेकिन हम गीता को महज़ मानते भर हैं…न तो पढ़ते हैं न ही अमल में लाते हैं.
_ किसी का अपने जीवन में आने को इस दुनिया की सबसे अदभुत घटना मानते हैं..
_ तो वहीं उसके अनायास ही चले जाने को इतना कठिन मानते हैं..
_ जैसे ये महज़ हमारे साथ ही घटित हुआ हो.
_ और इन सब के पीछे जो शक्ति काम करती है वहीं आसक्ति है…
_ जिससे छूटना हमें दुष्कर कार्य प्रतीत होता है.
_ असल में हम आसक्ति की बेड़ियों का वरण भी स्वयं ही करते हैं…
_ हम स्वयं ही बंधन को गले का हार समझकर बड़ी प्रसन्नता से अपने गले में डाल लेते हैं..
..और फ़िर ताउम्र बंधन से छूटने को….आसक्ति से निकलने को चीखते पुकारते रहते हैं…..
_ जबकि आसक्ति की बंधन खोलने वाली कुंजी हमारे ही इर्द गिर्द कहीं पड़ी होती है..
..हम जब चाहे उस कुंजी को उठाकर अपनी आसक्ति से आज़ाद हो सकते हैं…
_ हम जब चाहे अपनी बेड़ियां काट सकते हैं।।
— अविनाश राही