सुविचार – सड़क – मार्ग – पथ – पंथ – रोड – Road – 188

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हमें लगता है की हम पहुंच गए, दअरसल हम पहुंच कहीं नहीं रहे होते, बस सड़क बदलती रहती है.

_ घर बना भी लें तब भी घर में इतनी ताकत नहीं कि वह सड़क और यात्रा की नियति को रोक सके.
_ हर घर सड़क के लिए एक तरह का अतिक्रमण है.
_ “हर घर सड़क के बीच में ही होता है”,
_ नितांत अकेला…
_ ढेर सारे घर भी अकेले अकेले, अकेले ही होते हैं.
_ “घर कभी सड़क को रोक नहीं सकता”
_ “हमारी नियति है सड़क पर होना”।
_ “हम सब रचना के रूप में सड़क के यात्री हैं”
_ यात्री हैं यही मान लेना शुभ है, सुखद है, घर के बाशिंदे हो जाने में घोर दुःख है क्षोभ है, याद है, ढेरों फरियाद हैं.
_ फरियादी घर में बसेरा बनाकर फरियाद करने बैठता है, ले चलो.
_ राहगीर बस चलता रहता है.
_ सड़क ही घर है उसका, बशर्ते राह चलते चलते उसने घर की कामना न कर ली हो…
करते ही सारे दुःख, सारा खालीपन घर के कमरे के एक कोने में बैठ जाता है.
_ बार बार याद दिलाता है मैं हूं, यहीं हूं कहीं गया नहीं, जाऊंगा भी नहीं.
_ “सड़क होने पर दुख का कोना आसमान हो जाता है,
आसमान दुःख समेटता नहीं, कर देता है उड़न छू” 🐥
~अमित तिवारी
अस्तित्व
हाइवे के एक ढाबे पर बैठे बैठे मैं सोच रहा हूं कि मुझे हमेशा रास्ते ही रास्ते क्यों दिखते हैं, कोई मंजिल दिखती ही नहीं, मन चलने के बारे में या फिर चलते रहने के बारे में ही विचार करता रहता है…

_ कहां इसका मुझे ठीक से पता नहीं, बस चलते रहना चाहता है…
कोई मंजिल मालूम ही नहीं…बस रास्ते, रास्ते और रास्ते…
_ कभी कभी तो हाइवे पर मैं स्वयं को इतनी दूर देखता हूं कि मेरी छवि बहुत बहुत क्षुद्र दिखती है और दिखता है आकाश की तरह मुझ पर आच्छादित बड़ा सा रास्ता…
_ उस रास्ते में मैं ऐसे यात्रामय होता हूं जैसे कोई स्पेसक्राफ्ट यात्रा कर रहा हो अंतरिक्ष की…
~अमित तिवारी

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