मस्त विचार 4558

कभी इनका हुआ हूँ मैं, कभी उनका हुआ हूँ मैं ;

खुद अपना हो नहीं पाया कभी, मगर सबका हुआ हूँ मैं !

सुविचार 4682

पतझड़ में पेड़ से गिरने वाले पत्तों की तरह न बनें,

जिन्हें हवा द्वारा यहाँ से वहाँ दिशाहीन, लछ्यहीन उड़ा दिया जाता है.

“मन का एक पल”- Mann ka ek pal – 2027

“मन का एक पल”

_ “जहाँ शब्द रुक जाते हैं, वहीं मन बोलता है…”

_ “अंदर एक गीत चल रहा है, सिर्फ सुनने के लिए – समझने के लिए नहीं.!!”

“मैं अब किसी को जगाने नहीं, बस ख़ुद जागकर अपने रास्ते चलता हूँ..

_ क्योंकि लोग अपनी नींद और अपने भ्रमों से ही प्रेम करते हैं.”

_ इसलिये मैं वह समय औरों पर व्यर्थ में नष्ट करने की अपेक्षा..अपने लिये उपयोग करना ही उचित समझता हूँ.. और अब अपने में ही मस्त रहता हूँ.

_ लोग कुछ भी करते रहें.. कोई फर्क नहीं पड़ता..

_ लोगों का बड़ा हिस्सा भ्रमों में जी रहा है, और उसी का परिणाम है.. – यह शोर, यह अव्यवस्था, यह आंतरिक अंधेरा.

_ इसलिये मैं अपना कर्म करते रहता हूँ और किसी से अपेक्षा नहीं रखता.!!

भीतर एक ऐसा कोना है, जहाँ नमी अब भी बाकी है — वह मेरा सबसे अनमोल हिस्सा है.

_ रोज रोज़ और बेहतर बन पा रहा हूँ तो वो इसी कोने की देन है.!!

“स्थिरता का मतलब दुनिया से भागना नहीं,

_ बल्कि दुनिया के बीच अपनी धड़कन को ठीक रखना है.”

“अनकहे को समझना”

_ हर भावना शब्दों में नहीं उतरती — कुछ सिर्फ़ मौन में धड़कती हैं.

_ फिर भी लोग शब्दों की मांग करते हैं, जैसे बिना बोले भाव अधूरे हों.

_ पर सच्ची समझ तो वहीं शुरू होती है, जहाँ शब्द ख़त्म हो जाते हैं.!!

“क्या मैं या और लोग बातों के पीछे छिपी भावना को महसूस कर पाते हैं, या सिर्फ़ शब्दों को ही सुनते हैं ?”

कभी-कभी जो लोग हमें तोड़ते हैं, वे अनजाने में हमें अपने असली आधार की ओर लौटा देते हैं — वो आधार जो किसी व्यक्ति पर नहीं, बल्कि अपने भीतर की स्थिरता-शांति पर टिका होता है.

— किसी के लौटने या न लौटने से उसका मूल्य नहीं घटता”

कभी-कभी चुप रह जाना ही खुद की देखभाल का सबसे गहरा रूप होता है.

_ हर बात बताना, हर हाल साझा करना — ये सब थकाने लगता है.

_ ठीक होना, हमेशा बताने से नहीं आता —

कभी-कभी सिर्फ खुद के साथ रह जाने से आता है.!!

कुछ लोग सचमुच नाली के कीड़े होते हैं ;

_ चाहे आप उन्हें बाहर निकालने की कितनी भी कोशिश करो,

_ लेकिन वे हमेशा घूम फिर कर उसी जगह वापस पहुँच जाते हैं.!!

— कुछ लोग अपने भीतर की नकारात्मकता से कभी मुक्त नहीं हो पाते.

_ चाहे आप उन्हें कितना भी संभालें, समझाएँ या अवसर दें,

_ वे फिर उसी गंदगी, उसी मानसिकता में लौट जाते हैं..

— क्योंकि परिवर्तन इच्छा से नहीं, चेतना से आता है.

_ यह बहुत भारी है—उनसे वो बातें न कह पाना.. जो मै कहना चाहता हूँ..

_ क्योंकि वे हमेशा कुछ और ही चुनेंगे और मुझे इस बात का पछतावा रहेगा कि मैंने उन्हें कुछ कहा ही क्यों था.!!

“क्या मैं दूसरों को बदलने की कोशिश में अपनी शांति खो देता हूँ ?”

_ कभी-कभी बुद्धिमानी यही होती है — कि हम देख कर भी दूरी बनाए रखें.!!

कभी-कभी मुस्कुराना भी एक आत्मरक्षा [self-defense] बन जाता है — जब लोग समझने नहीं, आंकने आते हैं.

_ पर भीतर जो सच्चाई शांत है, वही मेरा असली घर है.

_ आज खुद से पूछूँ —

_ क्या मैं अब भी उस भीतर वाले हिस्से से जुड़ा हूँ, या मुस्कान ही मेरा चेहरा बन चुका है ?

_ इस दुनिया में जीना आसान नहीं, इसलिए मैंने अपने चारों ओर मुस्कान का एक आवरण बुन लिया है.

_ उसके पीछे मेरे दुःख और वेदनाएँ गहराई में सोए हैं.

_ लोग सोचते हैं मैं खुश हूँ, क्योंकि मैं वही दिखाता हूँ जो वे देखना चाहते हैं —

_ अब लोगों को सच्चाई नहीं, दिखावा भाता है.!!

“अकेले में भी संपूर्ण होने” का अहसास ?

— “अब मैं बस अपने साथ हूँ, और यही काफी है”

_ अब किसी के साथ रहने की ज़रूरत महसूस नहीं होती.

_ मैंने जाना है कि सुकून किसी और से नहीं, खुद से मिलता है.

_ जब मैं दूसरों के लिए सुकून बन सकता हूँ, तो अपने लिए क्यों नहीं ?

_ अब मुझे अपने आस-पास का शोर नहीं चाहिए —

_ क्योंकि मैंने समझ लिया है,

_ हर चीज़ और हर इंसान को बचाना ज़रूरी नहीं होता.

_ कुछ लोग अपने रास्ते खुद चुनते हैं,

_ और मैं बस अपने को सुरक्षित रखने का चयन करता हूँ.

_ अब कोई मुझसे बात करे या न करे — फर्क नहीं पड़ता.

_ मेरे भीतर खुद को ठीक करने की पूरी शक्ति है.

_ मुझे किसी अतिरिक्त मदद की ज़रूरत नहीं,

_ और मैं किसी से यह उम्मीद भी नहीं रखता..

_ मैंने अपनी सीमाएँ तय कर ली हैं —

_ आप अपने घेरे में रहो, मैं अपने में..

_ “अब मैं ऐसा ही हूँ” —

_ एक ऐसा इंसान जो अकेले भी संपूर्ण है,

_ जो खुद की देखभाल करना जानता है,

_ और इस बात पर गर्व करता है कि..

_ वह अब अकेला नहीं, बल्कि पूर्ण है.!!

“अकेले चलना सीख लिया है..- कोई अब संग हो तो भी आज़ादी बनी रहती है”

“क्या मैं सुकून से जी रहा हूँ … या बस जीने की आदत निभा रहा हूँ ?”

_” कब से मैं दूसरों की अपेक्षाओं, ज़िम्मेदारियों और बेचैनियों के बीच खुद को खोता जा रहा हूँ ?

_ आज एक सवाल अपने भीतर रखता हूँ — क्या मैं अपने लिए एक घूंट सुकून निकाल पा रहा हूँ… या बस जीने की आदत निभा रहा हूँ ?

_ जीवन चाहे जितना व्यस्त, उलझा या पीड़ादायक क्यों न हो — इंसान को अपने लिए कुछ पल सुकून के ज़रूर निकालने चाहिए.

_ इतना बोझिल भी नहीं होना चाहिए जीवन कि खुद के भीतर ठहराव का एक घूंट भी न मिल सके.

_ वो कुछ क्षण — जब हम सिर्फ अपने साथ हों — वही सबसे सच्ची विश्रांति है.!!

“थकान के उस पार”

_ “क्या मैं अपने भीतर की थकान को सुनता हूँ, या उसे हर बार काम की आवाज़ों में दबा देता हूँ ?”

_ कभी-कभी जीवन इस कदर व्यस्त कर देता है कि मन और शरीर के बीच का रिश्ता ढीला पड़ जाता है.

_ शरीर और सिर में दर्द बन जाता है — मन की अनकही थकान का संदेशवाहक.

_ फिर भी मुस्कुराता हूँ, क्योंकि ज़रूरत है ; बोलता हूँ, क्योंकि भूमिका निभानी है — पर भीतर कहीं एक शून्य धीरे-धीरे फैलता जाता है.

_ पर शायद यही खालीपन मुझे भीतर झाँकने का अवसर देता है.

_ क्योंकि जब सब कुछ ठीक होते हुए भी कुछ अधूरा लगता है, तब आत्मा फुसफुसाती है — “थोड़ा ठहर, ज़रा अपनी ओर भी लौट”

_ थोड़ा समय खुद के लिए, बिना किसी उद्देश्य के — सिर्फ़ होने के लिए..

_ वही क्षण, शायद फिर से जीवन की साँस बन जाए.

“क्या मैं अपने भीतर की थकान को सुनता हूँ, या उसे हर बार काम की आवाज़ों में दबा देता हूँ ?”

“तटस्थ होने की चाह”

– कभी देखो मुझे मेरी नज़रों से, कीमत अपनी और किस तरह समझाऊँ.!!

_ भौतिक दुनिया की उलझनों के बीच जीता तो हूँ, – पर भीतर से अब विरक्त हूँ.

_ मन बस शांति की तलाश करता है — ऐसी जगह जहाँ कोई समझाने या बदलने की कोशिश न करे,

_ जहाँ मैं बस हो सकूँ, बिना किसी भूमिका के, बिना किसी मुखौटे के..

_ शायद सच्ची शांति वहीं है — जहाँ स्वीकार किया जाना किसी शर्त पर निर्भर न हो.!!

मैं कोई भी काम सही और सिस्टेमैटिक ढंग से करना चाहता हूं.. _ और वो चुन-चुनकर बुराइयां ढूंढ़ते हैं..!!

_ सोच में पड़ जाता हूँ कभी कभी.._ लोग किस किस तरह के होते हैं..!!

_ कभी-कभी दिल दुखता है.. जब मैं किसी काम को सलीके से करने की कोशिश करता हूँ, और वो उसमें भी कमी निकाल लेते हैं.

_ शायद वे मेरी नीयत नहीं, अपनी सोच दिखा रहे होते हैं.!!

मैंने ईंट-ईंट जोड़कर घर बनाया,

_ फिर खुद ही बंद करके चाबी फेंक दी.

_ अब मुझे सिर्फ दरवाज़ा नहीं,

_ चार दीवारें, छत और उनसे जुड़ी यादें भी तोड़नी हैं.

_ मुझे अब कोई बना-बनाया घर नहीं चाहिए —

_ मैं चलूँगा… जहाँ थकूंगा- वहाँ रुकूँगा, मस्त-मगन सा रहूँगा,

_ कोमल बनकर, हर चीज़ में ढल जाऊँगा.

_ मैं हवा बनूँगा — _ खाली जगहों से अदृश्य बहता हुआ, एक ही पल में… हर जगह.!!

“बहुत आवाज़ दी मैंने.. फिर चुप रहना ही सही समझा.!!”

_ आख़िर में मैंने जीवन से लड़ना छोड़ दिया..

_ हँसकर झेले हुए पल भी थे और वो रातें भी.. जब ख़ुद को पकड़कर रोया था.

_ डुबो देने वाली वही लहरें.. तैरना सीखा गईं.

_ सब सलाहें, सहारे बेअसर निकले..

_ तो बस अब मैंने सबकुछ जीवन को ही सौंप दिया..

— “मैंने अब जीवन से जद्दोजहद छोड़ दी है —

_ हँसी भी मेरी थी, आँसू भी मेरे थे..

_ बस अब तेरी मर्ज़ी पूरी हो.”

“ज़िंदगी चलने से बनती है, रुकने से नहीं..”

_ “मैं ठहराव में नहीं रहूँगा..- मैं हर रोज़ थोड़ा-सा आगे बढ़ूँगा.”

_ मैं आज एक छोटा काम करूँगा.. जो मुझे मेरे ठहराव से थोड़ा बाहर निकाले..

_ चाहे वह एक नई दिशा सोचना हो, कुछ मिनट वॉक करना हो, एक पेज पढ़ना हो, या एक भाव लिख देना हो.

_ मैं अभी जीवन के किस हिस्से में रुक गया हूँ..- सोच में, डर में, आदत में, या किसी पुराने दुःख में ?

_ चलना हमेशा तेज़ दौड़ना नहीं होता.

_ कभी–कभी बस एक छोटा-सा कदम भी जीवन को नए रास्ते पर ले जाता है.

“मैं आपका मन चाहा कह तो नहीं सकता… पर आपका मन चाहा — सुन सकता हूँ, महसूस कर सकता हूँ.”

_ “शब्द भले मेरे हाथ में ना हों… पर आपके मन की आवाज़ — सुन सकता हूँ.”

क्यों कोई मेरे जैसा नहीं है ? क्यों कोई मेरी तरह महसुस नहीं करता ?

_ जहाँ लोग बस देख कर निकल जाते हैं, मैं ठहरकर महसूस करता हूँ.

_ “शायद इसीलिए मैं औरों जैसा नहीं.!!”

_ क्योंकि मैं दुनिया को वहाँ से महसूस करता हूँ, जहाँ बहुत कम लोग पहुँचते हैं.

_ मेरी संवेदनाएँ गहरी हैं, मेरी नज़रें भीतर तक जाती हैं.

_ लोग सतह पर जीते हैं, और मैं भीतर की परतों में..

_ इसलिए अक्सर मुझे लगता है कि कोई मुझे समझ नहीं पाता..

_ पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं गलत हूँ, बस मैं थोड़ा अलग हूँ.”

“अँधेरा बहुत है…”

_ ‘अँधेरा बहुत है’ आओ, ज़रा दिल को जलाएँ.. ‘रोशनी माँगने और कहाँ जाएँ ?’

_ “जब बाहर रोशनी कम पड़ जाए, तो यह देखने का वक्त है कि मेरे भीतर की लौ कितनी जीवित है.

_ किस बात की रोशनी मैं बाहर तलाश रहा हूँ, जो वास्तव में मेरे भीतर थी ?

_ कभी-कभी दिल को खुद ही जलाना पड़ता है—

_ क्रोध से नहीं, विरोध से नहीं… समझ से, शांति से, और अपनी सच्चाई से.

_ यही वह रोशनी है जो बाहर की सबसे गहरी रात को भी मात देती है.!!

“अब जो मैं हूँ…”

_ जब भीतर की बनावट बदल जाती है, तो दुनिया भी बदल जाती है.

_ पहले जिन चीज़ों को मैं “ख़ास” समझता था, उन्होंने अपनी चमक खो दी हैं — क्योंकि उन्हें चमक देने वाला मेरा पुराना ‘मैं’ था.

_ अब जब “मैं” बदल गया हूँ, तो उन सब का महत्व भी बदल गया.

_ जो चीज़ें पहले साधारण लगती थीं — एक शांत सुकूनभरी शाम, अकेले बैठे कोई चाय — वे ही अब गहरी और अर्थपूर्ण लगने लगती हैं.

_ और जो कभी बहुत बड़ी बात लगती थी — लोगों का व्यवहार, उनकी राय, उपलब्धियाँ — वे अचानक हल्की हो जाती हैं.

_ यह बदलाव बाहर नहीं, भीतर हुआ है..- इसलिए अब “ख़ास” कोई घटना नहीं होती…

_ जो भी हो रहा है, वही पर्याप्त है, वही सुंदर है, वही पूरा है.

_ अब जीवन को खास बनाने की कोशिश नहीं करनी पड़ती, जीवन अपने-आप खास महसूस होने लगता है.!!

_जो ख़ास था.. वो अब ख़ास नहीं.. – जो भी हो रहा होता है.. वो ख़ास हो जाता है..!!

“अब जो मैं हूँ…”

“गिरा बहुत हूँ, पर हर गिरना मुझे नया बनाता गया ; और अपना रास्ता खुद बनाना सीख गया.”

_ आजकल मैं चीज़ों को होने देता हूँ, जो होना है, होने देता हूँ.

_ क्योंकि मेरा काम सिर्फ़ अपनी प्रतिक्रिया [Reaction] चुनना है.

_ जाने वाले जाएँ..- मैंने उनके बिना भी जीना सीख लिया है.

_ जो जाता है, एक सबक दे जाता है; और जो रह जाता है, वही मेरा संसार बन जाता है.”

अब बस उसी को याद करता हूँ, जो दिल से मुझे याद करता है.

_ मोह-माया की हलचल हो या दर्द और तकलीफ़ की कड़वी परतें सबके पार निकल चुका हूँ.

_ उम्मीद और बेबसी, सम्मान और अपमान, डर, मृत्यु, जीवन और रिश्तों के शोर से भी काफी ऊपर उठ आया हूँ.

_ अब न दुनिया की सोच का वजन महसूस होता है, न इस बात की फ़िक्र कि.. मैं किसी की उम्मीदों पर कितना उतरता हूँ.

_ मैं बस अपने सच, अपनी शांति के साथ बेफ़िक्र होकर जी रहा हूँ.!!

– साधारण सा इंसान इस समाज को खटकता है, ख़ैर मुझे इसका कोई अफ़सोस भी नहीं.. क्योंकि मैं जानता हूं ‘मैं अलग हूं’,

_ इस समाज में हर जगह फिट नहीं होता, ना मेरे विचार फिट होते हैं..

_ किसी की हां में हां मिलाना.. मुझे नहीं आता.!!

“मैं रोज़ खुद से मिलता हूँ, और हर बार अपने भीतर एक नया अजनबी पा लेता हूँ.”

— वे न होते तो शायद ‘मैं आज जो हूँ, वो न होता.!!’

_ मुझे अपने साधारण पलों को भी ख़ास बनाकर जीना अच्छा लगता है.

_ इसका एक अद्भुत लाभ है — जब जीवन कठिन मोड़ लाता है, मैं उन पलों से जल्दी उबर आता हूँ.

_ क्योंकि अपने ज्ञान और समझ की परख, हमेशा आसान दिनों में नहीं होती —

_ वो तो तभी दिखती है.. जब हम कठिनाई के बीच से गुजरते हैं.

_ जब मैं थोड़े समय में फिर से सँभल जाता हूँ, तो भीतर स्पष्ट एहसास होता है कि — कोई मेरे साथ है.

_ और मैं मन ही मन उन लोगों का आभार भी मान लेता हूँ, जिन्होंने अपने व्यवहार से, अपनी कड़वाहट या दूरी से मुझे जीवन के गहरे सबक सिखाए.

_ वे न होते तो शायद मैं आज जो हूँ, वो न होता.!!

हम कहते हैं — अंत भला तो सब भला, पर क्या सच में ऐसा होता है ?

_ जीवन के शुरुआती कदमों में लगी ठोकरें, मध्य के रास्तों में उठाया गया दर्द, टूटे भरोसे, बिखरी उम्मीदें —

_ क्या ये सब सिर्फ इसलिए कम हो जाते हैं, क्योंकि अंत में चीज़ें ठीक हो गईं ?

_ सच तो यह है..- अंत सिर्फ परिणाम बताता है, पर यात्रा हमें बदल देती है.

_ हर चोट, हर सीख, हर टूटन – हमारे भीतर कोई नया आकार बनाती है.

_ अंत अच्छा हो सकता है, लेकिन उसकी सुंदरता तब ही पूरी होती है..

_ जब हम उस रास्ते की पीड़ा को भी सम्मान दें, जिसने हमें वहाँ तक पहुँचाया.

_ इसलिए शायद बात अंत भला की नहीं, बल्कि हम पूरे सफ़र को कैसे जीते हैं..- उसकी है.!!

सुविचार 4681

जब कोई आपकी कीमत नहीं समझे, तो उदास ना होइए ;

बस ये जान लीजिए कि कबाड़ी को कभी हीरे की परख नहीं होती.

मस्त विचार 4555

वो कोई और चिराग होते हैं, जो हवाओं से बुझ जाते हैं,,,

हमने तो जलने का हुनर भी तूफ़ानों से सीखा है..!

सुविचार 4680

किसी से बदला लेने का कोई फायदा नहीं,

बस माफ़ करके सीधा दिल से निकाल दो..

error: Content is protected