हर मृत्यु जीवन की क्षति है किंतु ..आत्महत्या या खुदकुशी !
_ यह तो सभ्य समाज पर प्रश्नचिन्ह है..
_यह जानना ही चेतना को सुन्न कर देता है कि किसी ने स्वयं से मुंह मोड़ लिया..
_ मरने से पहले मरने वाला कितना बेबस और अकेला होता होगा, उस वक़्त वह क्या सोचता होगा ?
..इतना निराश कि _ एक संघर्षमय अतीत के बाद ..चमकता वर्तमान ..और लोगों को ईर्ष्या हो उठे ..ऐसा भविष्य.. _ जब सामने हो तो बन्दा उठे और चुपचाप दृश्य से ओझल हो जाये..!!
_ यह सोचते हुए कि रखो तुम अपनी ख़ूबसूरत दुनिया, यह मेरे काम की नहीं..
_ यूँ जाना नहीं चाहिए किसी को …पर उससे ज़रूरी है कि ..हमें ऐसा वातावरण, ऐसा समाज बनाना चाहिए.. _ कि हम ही न जाने दें किसी को..
.. पकड़ लें हाथ कि दोस्त, भाई …सुनो …तुम बेहद ज़रूरी हो ..सबके लिए..
… नहीं तो कम से कम मेरे लिए..मत जाओ न.. हम हर परेशानी से मिलकर निपट लेंगे..!!
_पर नहीं हम करते क्या हैं.. ?
_ जब कोई परेशान हो, अवसाद में हो, कभी आत्महत्या की बात करे तो ..उसे अपनी महानता, संघर्ष के क़िस्से सुनाते हैं, उस पर तंज करते हैं, कायर, कमज़ोर कहते हैं या उसे अवॉयड करते हैं..
.. हम उसे न सुनते हैं, न समझते हैं न गम्भीरता से लेते हैं..
_ हमारे समाज में वह ज़िन्दगी ज़्यादा कीमती, ज़्यादा तवज्जो [ attention ] पाती है.. जो जीवित नहीं..
_ हमने जितना प्यार गुज़र चुके लोगों को किया .. उसका शतांश भी ज़िंदा लोगों को किया होता तो…
_ वह यूँ चुपचाप असमय न चले जाते…
_ ज़िंदा लोगों के लिए क़ब्र खोदने वाला समाज .. मरे हुओं पर आंसू बहाते हुए ..असल में अपनी शर्मिंदगी को छुपाता है..
_ ज़िन्दगी तुझे तो हम समझ ही नहीं पाए … पर मौत तू कितनी दिलकश है ..
..जो यूँ सितारे तुझे गले लगा लेते हैं..!!