सुविचार – गाँव – शहर – 062

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जिम्मेदारियो के बोझ तले तेरी गिरफ्त मे हू ऐ शहर,

_ वरना मेरे गाँव के खेत तुझसे ज्यादा सुकून देते है..

“नौकरी जो इस तरह निर्मम है, कि इसे न तो परिवार का महत्व समझ में आता है और ना अकेले जीने का दर्द “

कोई ज़माने में अपना सा लगता वो गाँव, पीछे छूट गया जनाब _

_ अब वो चाय की टपरी पर मिलते दोस्त भी, शहर जो आ गए .!!

गाँव से शहर में बसते ही खुद को ऊंचा समझते हैं लोग,,,,,_ कैसे बताऊँ उन्हें..

_तेरी पक्की सड़क से अच्छी है वो पगडंडियां, _जो बाट निहारती है मेरे आने की..

“नही चाहिए बड़ा शहर”

_ कंक्रीट के जंगल में मुझे एक वक्त के बाद उफनाहट [बोरियत] होने लगती है.!!

जिस तरह अच्छे अच्छे पकवानों से मन भर जाता _ ” रोटी से नहीं, “

_ उसी तरह बड़े से बड़े शहरों में मन भर जाता _ ” गांव में रहने से नहीं…”

गाँव छूटते ही रंग बदल जाते हैं..

_ जो देखा वो द़िमाग मे रह जाता है और कुछ यादें थकी हुई जिंदगी का हिस्सा बन जाती हैं.
_ लगता है कि हम ठहर गये हैं और खालीपन लगने लगता है.!!
गाँव का घर हर किसी को कहाँ नसीब होता है साहब ?

_ बहुत से लोगों की जिंदगी गुजर जाती है.. बाहर कमाते कमाते.!
_ चार दिन की छुट्टी लेकर जब घर आता है.. तब घर वाले हजारों टेंशन परोस देते हैं.
_ कुछ नये सपने जगा देते हैं, फिर उन सपनो के सपने देखते हुए फिर से ड्यूटी पर चला जाता है.
_ जवानी अकेले कट जाती है, कोई दर्द बाँटने वाला भी नही होता.
_ फिर जब हमेशा के लिए घर आता है तब तक बुढ़ा हो जाता है.!!
आगे बढ जाने की विवशता और पीछे लौट जाने की इच्छा..

_ हम लड़कों का इनके मध्य ही जीवन बीतता जाता है..!!
छोड़ कर एसी और कूलर, पीपल की छांव चलते हैं,_

_ शहर से जी भर गया, चलो अब गाँव चलते हैं !!

जिस्म तोड़ नौकरी है शहरों में..

_ बेटे गाँव कमा कर नहीं, थक कर लौटते हैं !!

शहर में छाले पड़ जाते है जिन्दगी के पाँव में, _

_ सुकून का जीवन बिताना है तो आ जाओ गाँव में..

पैसा भले ही शहर में ज्यादा होगा , _

_ सुकून मगर अभी भी गाँव में मिलता है ..

घर न जाऊं किसी के तो वो रूठ जातें हैं,_

_ मेरे गांव में अब भी, वो तहज़ीब बाकी है..!

मैं गांव हूं मुझे गांव ही रहने दो ; शहर की जकड़न में दम घुटता है मेरा !!
‘शहर’ आने के बहुत से रास्ते खुला रखता है,

_ लेकिन लौटने के सभी रास्ते बंद रखता है.!!

इस भरे शहर में कौन मेरा अपना है,

_ जो मेरे पास ना होने पर रूठ जाए..!!

बहुत महंगा सौदा कर रही है ये ज़िन्दगी एक जॉब के चक्कर में,

_ माँ, दोस्त, घर, गाँव सब कुछ छोड़ना पड़ रहा है !!

किस आज़ादी में कैद हो गए शहर में,

_ कि फिर गाँव जाने को तरस गए !!

शहर में मेहमान की बिदाई सीमित है दहलीज़ों तक, _

_ गांव में अभी भी लोग सड़क तक छोड़ने आते हैं..

शहर बसा के _ गाँव ढूंढ़ते हैं..!

अजीब पागल हैं _ हाथ में कुल्हाड़ी ले कर छाँव ढूँढ़ते हैं ..!!

अपनी मिट्टी से हमेशा के लिए दूर हो जाते हैं,

_ कुछ लोग जो शहर जाकर मशहूर हो जाते है.

कोई किसी की तरफ़ है कोई किसी की तरफ़ _

_ कहां है शहर में, अब कोई ज़िंदगी की तरफ़..!!

मेरे गाँव की मिट्टी से भरता है तेरे शहर का पेट…_

_ और तेरे शहर वाले… गाँव वालों को… गवार कहते हैं…!!

कहीं जमीं से ताल्लुक न खत्म हो जाए,

_ बहुत न खुद को हवा में उछालिए साहब !!

गाँव से आने वाले लड़के लालटेन के उजाले में पढ़कर, _

_ एक दिन पूरी दुनिया को रोशनी दिखाते हैं..!!

गुज़री तमाम उम्र उसी शहर में जहाँ,

_वाक़िफ़ सभी थे कोई पहचानता न था.
सुना पड़ा गांव का दालान ..जहां बचपन में खेला करते थे.
_ अब जिम्मेदारी ने शहर बुला लिया.!!
ये रोजगार की तलब गाँव से शहर तक ले आई ज़िन्दगी को,
_अब अपने ही घर-गाँव जाने के लिए दूसरों से पूछना पड़ता है.!!
अपनी गली में अपना ही घर ढूंढ़ते हैं लोग _ यह कौन शहर का नक्शा बदल गया !!
दुनियाँ के किसी शहर में नहीं मिलेगा, _ सुकून के लिए अपने गाँव लौटना होगा..
शहर में तो बस मेरा शरीर रहता है, _दिल मेरा आज भी गाँव में बसता है..
अपने गाँव से निकले तो खो गये, अपने जो दूर हुए तो अजनबियों से हो गये..!!
जिम्मेदारी ने छुड़वा दिए गाँव, घर, दोस्त.. गाँव छोड़ कर जाने वाले यही सोचते हैं.!!
गाँव में पक्का मकान बनाना था… सो कच्ची उम्र में घर छोड़ना पड़ा ..
हर आदमी के अंदर एक गाँव होता है _ जो कभी भी शहर नहीं होना चाहता..
जहाँ कमरे में कैद हो जाती है ” जिन्दगी ” _ लोग उसको बड़ा शहर कहते हैं.
यदि रोजगार की मज़बूरी न होती तो शहरों का अस्तित्व ही न होता !!
गांव का छोड़ मकान अपना, _ किराए में शहर में रहते हैं।।
शहर के मकान फीके पड़ जाते हैं, _जब गाँव वाले घर याद आते हैं.
गाँव ने ही बचा रखा है रातों का वजूद, शहर वाले तो अँधेरा नहीं होने देते..!!
हम भी गाँव में शाम को बैठा करते थे, _ हमको भी हालात ने बाहर भेजा है..
“जीवन” _शहर की अमीरी में कितना गरीब हो गया है..!!

_शहर के लोग गाँव में नहीं रहना चाहते, _पर गाँव की ज़िन्दगी का मज़ा लेना चाहते हैं.!!

शहर और गाँव दोनों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं..

_ और दोनों ही जीवन के अलग-अलग अनुभव प्रदान करते हैं !!

शहरी जीवन लाखों लोगों का एक साथ अकेले रहना है.
शहर की दवा और गाँव की हवा बराबर होती है.
गाँव छोड़ के जाना पड़ता है, घर छोड़ के जाना पड़ता है,

_ वो खिड़की और छत को अलविदा कहना पड़ता है,
_ हमारा बस चले तो यहीं सुकून से आराम फरमाते,
_ लेकिन कुछ मजबूरियों तले भी जीना पड़ता है .!!
बहुत दिनों बाद खुले आसमान के नीचे सोकर बचपन याद कर रहा हूं, सच कहूं तो इस भौतिक परिवर्तन में अब खुले आसमान के नीचे सोना एक लग्जरी अनुभव दे रहा है,

गर्मियों के मौसम में रात में खुले आसमान के नीचे सोना जब सामान्य न रहकर वैभव लगने लगे तो समझ लो _ जीवन शहर की अमीरी में कितना गरीब हो गया है….

अपने गांव अपने शहर से लगाव सभी को होता है और होना भी चाहिए, जिस जगह बच्चा पैदा होता है, _ वहां की एक-एक चीज से उसकी यादें जुड़ी होती हैं ; वह कभी भी विस्मृत नहीं की जा सकती हैं, _ फिर चाहे वह पेड़ पौधे हों या सुबह – सुबह डालों पर अठखेलियां करते पंछियों की माधुर्य उत्पन्न करती चहचहाहट हो.

अपना गांव/ शहर तो अपना होता है तब चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो जब हम उसके बारे में कुछ अच्छा कहे तो बड़ी प्रसन्नता होती है.

_ लेकिन अपनी जन्मस्थली होने के नाते यदि किसी शहर या गाँव को देखा जाए तो उस पर बहुत अपना बहुत लाड़ बहुत प्रेम स्वत: ही न्यौछावर होता है.

_ये सब यादों के वही पृष्ठ है जिसे कोई इंसान बचपन से बुढ़ापे तक भरता है और कभी अकेलापन महसूस होने पर उन्हें पड़ता है,_ _ लोगों की तो मजबूरियां होती है जिसके कारण ही कोई अपना शहर या गाँव छोड़कर जाता है, _ वरना कौन अपनी जन्मस्थली छोड़ कर जाना चाहेगा.

शहरों में रहने वाले अधिकांश लोगों की गतिविधियों ने पृथ्वी से अपना संबंध खो दिया है;

_ वे मानो हवा में लटके रहते हैं, सभी दिशाओं में मँडराते हैं, और कोई जगह नहीं पाते जहाँ वे बस सकें.

यह व्यक्तिगत प्राथमिकताओं और ज़रूरतों पर निर्भर करता है.

_ गांव का जीवन उन परिवारों के लिए बेहतर हो सकता है जो शांतिपूर्ण और आरामदेह माहौल चाहते हैं,

_ जबकि शहर का जीवन उन परिवारों के लिए बेहतर हो सकता है जो जॉब के अवसरों और सुविधाओं और सुख-सुविधाओं की एक विस्तृत श्रृंखला तक पहुँच चाहते हैं.

ज़मीन पे चल न सका, आसमान से भी गया ;

_ कटा के पर वो परिंदा, उड़ान से भी गया..
_ तबाह कर गई उसे, पक्के मकान की ख्वाहिश;
_ वो अपने गाँव के कच्चे मकान से भी गया..!!
भागम- भाग की दुनिया में समय रहते लोग जरुरत से ज्यादा जमा करने के चक्कर में फंसे रहते हैं,

_ लंबे समय के बाद अपनों के बीच लौटने पर उनकी अहमियत कम हो जाती है,
_ क्योंकि लोग उनके बगैर जीना सीख लेते हैं.
_ जब भी लगे कि अब लौटना बेहतर है, तभी वापसी कर लेनी चाहिए !!
_ साथ ही सत्य यह भी है कि जहाँ रोटी मिलती है, वही अपना घर है.
_ जो कहते हैं कि वो कभी अपने देश, अपने घर लौटेंगे, वे सत्य नहीं बोलते..
_ उन्हें केवल अपने घर से लगाव रहता है, लेकिन वो वहां रह नहीं पाएंगे.
_ क्योंकि जिस घर, गाँव को छोड़ कर गए थे _ वापसी में वो वैसे नहीं मिलेंगे, निराशा ही मिलेगी..
_ उसके बाद सिर्फ सपने में ही घर और गाँव दिखाई देंगे..!!
_ पर मन थेथर होता है, जहाँ हम लौट नहीं सकते, अपनी ही मज़बूरी के कारण _ फिर भी उन्हीं छोड़े के साथ हमेशा जीते हैं.
_ इसीलिए जहाँ पर हो, वहीँ पर जी लो अपनी ज़िन्दगी खुल कर शान से ;
_ वरना आधी ज़िन्दगी हम जिम्मेदारियां पूरी करने में खर्च कर देंगे..
_ और बची ज़िन्दगी हम वापस जाने की तैयारियों में खर्च कर देंगे..
_ तो अपने लिए कब जियेंगे ??
_ इसलिए अब आगे की तैयारी करने का वक़्त है,
_ समय में पीछे जाने पर सिर्फ़ राख़ मिलती है, जैसे ही छुओगे भरभरा कर गिर जाती है ;
_ अब आगे देख कर जीना ही उत्तम है..!!
चलो गाँव चलते हैं, अपनी मंजिल अपने पांव चलते हैं

कैसे चले, गाँव पूछता है, सभी चले गए,

पहले मुझसे, फिर शहर से रूठ गए

अब लौट आना चाहते हो,

अपनी मंजिल अपने पांव आना चाहते हो

ना वो मंजिल रही, ना वो रास्ते

तुम जिन रास्तों पर अपनी मंजिल अपने पांव जाना चाहते हो

अब बदल गया वो गाँव भी

बदल गए रास्ते भी उसके

ना खेत है अब ना खलियान है

ना पगडंडियां है ना फसलें लहलहान है

कहाँ आओगे _ इसको भी उजाड़ गए,

उसको भी छोड़ आए

ना तुम उसके बने, ना इसके

बस भागते रहे

यूँ ही अब भागते जाना है

ना मंजिल है ना पांव _ कहां जाना है

अपनी मंजिल अपने पांव कैसे जाना है.

गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है।

जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है।
बेचा है ईमान धरम तब, घर में शानो शौकत आई है।
संतोष बेच तृष्णा खरीदी, देखो कितनी मंहगाई है।।
बीघा बेच स्कवायर फीट, खरीदा ये कैसी सौदाई है।
संयुक्त परिवार के वट वृक्ष से, टूटी ये पीढ़ी मुरझाई है।।
रिश्तों में है भरी चालाकी, हर बात में दिखती चतुराई है।
कहीं गुम हो गई मिठास, जीवन से कड़वाहट सी भर आई है।।
रस्सी की बुनी खाट बेच दी, मैट्रेस ने वहां जगह बनाई है।
अचार, मुरब्बे आज अधिकतर, शो केस में सजी दवाई है।।
माटी की सोंधी महक बेच के, रुम स्प्रे की खुशबू पाई है।
मिट्टी का चुल्हा बेच दिया, आज गैस पे कम पकी खीर बनाई है।।
पहले पांच पैसे का लेमनचूस था,अब कैडबरी हमने पाई है।
बेच दिया भोलापन अपना, फिर चतुराई पाई है।।
सैलून में अब बाल कट रहे, कहाँ घूमता घर- घर नाई है।
कहाँ दोपहर में अम्मा के संग, गप्प मारने कोई आती चाची ताई है।।
मलाई बरफ के गोले बिक गये, तब कोक की बोतल आई है।
मिट्टी के कितने घड़े बिक गये, अब फ्रीज़ में ठंढक आई है ।।
खपरैल बेच फॉल्स सीलिंग खरीदा, जहां हमने अपनी नींद उड़ाई है।
बरकत के कई दीये बुझा कर, रौशनी बल्बों में आई है।।
गोबर से लिपे फर्श बेच दिये, तब टाईल्स में चमक आई है।
देहरी से गौ माता बेची, अब कुत्ते संग भी रात बिताई है ।
ब्लड प्रेशर, शुगर ने तो अब, हर घर में ली अंगड़ाई है।।
दादी नानी की कहानियां हुईं झूठी, वेब सीरीज ने जगह बनाई है।
बहुत तनाव है जीवन में, ये कह के मम्मी ने भी दो पैग लगाई है।
खोखले हुए हैं रिश्ते सारे, कम बची उनमें कोई सच्चाई है।
चमक रहे हैं बदन सभी के, दिल पे जमी गहरी काई है।
गाँव बेच कर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है।।
जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है।।
कीमत बड़ी चुकाई है।कीमत बड़ी चुकाई है।

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