My Favourites – मन हो नया ना कि नया साल – 086

” मन हो नया “

नये वर्ष के नये दिन पर पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि दिन तो रोज ही नया होता है, लेकिन रोज नये दिन को न देख पाने के कारण हम वर्ष में कभी- कभी नये दिन को देखने की कोशिश करते हैं. हमने अपनी पूरी जिंदगी को पुराना कर डाला है. उसमें नये की तलाश मन में बनी रहती है, तो वर्ष में एकाध दिन को हम नया दिन मान कर अपनी इस तलाश को पूरा कर लेते हैं, सोचनेवाली बात है- जिसका पूरा वर्ष पुराना होता हो, उसका एक दिन कैसे नया हो सकता है ? जिसकी आदत एक वर्ष पुराना देखने की हो, वह एक दिन को नया कैसे देख पायेगा ? हमारा जो मन हर चीज को पुरानी कर लेता है, वह आज को भी पुराना कर लेगा. फिर नये का धोखा पैदा करने के लिए नये कपड़े हैं, उत्सव हैं, मिठाइयां हैं, गीत हैं. लेकिन न नये कपड़ों से कुछ नया हो सकता है, न नये गीतों से कुछ हो सकता है.

नया मन चाहिए ! और नया मन जिसके पास हो, उसे कोई दिन कभी पुराना नहीं होता. जिसके पास ताजा मन हो, फ्रेश माइंड हो, वह हर चीज को ताजी और नयी कर लेता है. लेकिन ताजा मन हमारे पास नहीं है. इसलिए हम चीजों को नयी करते हैं. मकान रंगते हैं. नयी कार लेते हैं. नये कपड़े लेते हैं. हम चीजों को नया करते हैं, क्योंकि नया मन हमारे पास नहीं है.

कभी सोचा है कि नये और पुराने होने के बीच में कितना फासला होता है ? चीजों को नया करने वाली इस वृत्ति ने जीवन को कठिनाई में डाल दिया है. भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में यही फर्क है. अध्यात्मवादी रोज अपने को नया करने की चिंता में लगा है. क्योंकि उसका कहना है कि अगर मैं नया हो गया, तो इस जगत में मेरे लिए कुछ भी पुराना न रह जायेगा, और भौतिकवादी कहता है कि चीजें नयी करो, क्योंकि स्वयं के नये होने का तो कोई उपाय नहीं है. नया मकान बनाओ, नयी सड़कें, नये कारखाने, नयी व्यवस्था लाकर सब नया कर लो. लेकिन अगर आदमी पुराना है और चीजों को पुराना करने की तरकीब उसके भीतर है, तो वह सब चीजों को पुराना कर ही लेगा. हम इस तरह नयेपन का धोखा पैदा करते हैं.

– आचार्य रजनीश ओशो

मन का संचालन दिमाग से होता है,

_ अगर दिमाग सही दिशा पकड़ ले तो मन अच्छा काम करता है.

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ये मन का स्वभाव हैं कि जिन चीजों से वो परिचित होता है, उससे ऊब पैदा हो जाती है -और जो कुछ अनजाना है वो रोमांचित करता है !

_ चीजों का जानने की नहीं बल्कि जीने की फिराक में रहो.!!

_ जो जान लिया जाता है, वो तो पुराना, बासी हो जाता है और जो जिया जाता है _ वो हमारे व्यक्तित्व में कुछ नए अहसास, कुछ नई उमंग ओर कुछ नया गीत जोड़ देता है.

_ जितना इस अस्तित्व से मिले उसके लिए धन्यवाद का भाव उठना चाहिए.!!

_ शिकायतों में अक्सर हम इस जगत से पाने की योग्यता धुंधली कर लेते हैं; _ शिकायत का भाव हमारी अपात्रता दर्शाता है.

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रोज दिन होता है. _ रोज रात के बाद सवेरा होता है. _ नया क्या है ? कुछ भी नही..!!

परेशानियां, उदासियां, खालीपन और अवसाद किसी नये साल के आने से खत्म नही हो जाते.

_ जो इस दौर में हैं. _ उनके लिए कुछ भी नया नही है. _ ज्यादातर चेहरों पर खुश दिखने की एक परत है.

_ एक दिन की खुशफहमी से बाकी बचे 364 दिन बदल नही जाएंगे.

_ क्या ही उछल-कूद करना क्या ही बधाई और शुभकामनाएं देना.

_ छः महीनों से जिस शख्स ने पुराना मैसेज सीन नही किया था _ उसने भी हैप्पी न्यू ईयर का मैसेज भेज दिया है.

_ बीते साल में जिसके पास कॉल करने का वक्त नहीं था _ वो भी फोन करके शुभकामनाएं दे रहा है.

_ एक दिन में साल नही सिमट सकता है, _ कैसे समझाया जाए ऐसे लोगों को समझ नहीं आता..!!

_ एक दिन का अपनापन दिखाने के लिए इतनी जद्दोजहद क्यों है ?
 
_ मैं ये प्रश्न दूसरे से क्यों करूं, _ मुझे खुद से करना चाहिए..!!
 
_ मेरे सेम टू यू कह देने भर से मेरा या आपका कुछ ठीक हो जाता है तो चलिए कह देता हूं, _ सेम टू यू !!
 
_ जिस उत्साह से भरभर के शुभकामनाएं जिसे भेजी गयी हैं _ उसे तो ये पता ही नहीं होगा कि _ मैं जिसे ये शुभकामनाएं भेज रहा हूं. __ एक वक्त पर उसे आपकी जरूरत थी _ आपके समय की जरूरत थी.
 
_ तब आप साथ नहीं थे. __ आज आपके इस अपनेपन से उसे खीज उठ रही है.
 
__ ये कोई नहीं समझता है.
 
__ यकीन मानिए..!! “सब फौरी बाते हैं”
 
_ उम्मीद पालना एक फितरत बन गयी है कि सब ठीक हो जाएगा.
 
_ किसी के साथ होने से किसी की शुभकामनाएं मिल जाने से जिंदगी पूरे साल गुलजार रहेगी.
 
_ अगर ऐसा होता तो दुनिया में दुःख ही नहीं होता _ हर रोज उत्सव ही होता..!!
 
_ अफसोस ऐसा होता नही है. _ इसलिए बचा जाना चाहिए इस दिखावे से..!!
 
_ “दिन मेरा है” _ ठीक एक साधारण दिन की तरह, _ कैलेंडर बदला है. _ लोग नहीं बदलेंगे ये माहौल नहीं बदलेगा..!!
 
_ बदलना है तो खुद को बदलिए _ खुद के साथ मजबूती से खड़े रहने के संकल्प के साथ..!!
 
_ खुद को शुभकामनाएं दीजिए कि खुद ही सब ठीक कर देंगे..!!
 
_ किसी के हैप्पी न्यू ईयर कह देने या सुन लेने से कुछ नहीं बदलने वाला है..!!
 
_ समय के साथ यही रह जाना है. __ बकिया कुछ भी नहीं.
 
_ सच है मैंने स्वीकार किया है ; _ आप भी इसे मान लीजिए कोई जबरदस्ती थोड़े है..!!
 
_ जो इस दुनिया की भीड़ में होकर भी खुद के साथ मजबूती से खड़े हैं ; _ ऐसे लोगों को मेरा प्यार..!!
 
_ इस साल उनको _ उनके हिस्से का जहां मिले, प्यार मिले, खुशियां मिले, आजादी मिले..!!
 
_ इससे बढ़कर कोई दुवाएं नहीं है मेरे पास, _ रख लीजिए..!!
 
– पथिक मनीष
 
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जाम की लम्बी लम्बी कतारें, टूट चुके पहाड़, चमकीली रोशनियों से अंधे हो चुके कबूतर रात को सो नहीं पाते, न ही सो पाते हैं गौरैया के बच्चे| सारे जानवर भी हैरान हैं हमारी अंधी दौड़ और उब भरी ज़िन्दगी से पैदा हुए जश्न को देखकर |
 
कोई भी ख़ास उपलक्ष हो या यह नया साल, बस एक ही चीज दिखती है लोग भागना चाहते हैं कहीं और जाकर जश्न में खुद को डुबो देना चाहते हैं |
चाहे उस जश्न में कुर्बान कर दिए गए हों हजारों लाखो जानवर और उनकी बोटी को चबा लिया गया हो या बीयर और शराब की बोतलें फूट गयी हों सड़कों पर या पहाड़ों के सबसे शांत क्षेत्र में भी बियर और शराब की बोतल ने दस्तक दे रखी हो |
 
एक समय था जब सिर्फ़ मस्ती करने वाली जगह पर ही लोग मस्ती करने जाते थें बाकी जगहें छूटी रहती थी |
उदहारण के तौर पर शराब पीने के लिए ज्यादातर उसके एक निश्तित स्थान पर भीड़ इकट्ठी होती थी, धर्मस्थल कम से कम छूटे रहते थें.
 
आज की स्थिति क्या है ? चाहे बनारस हो या हरिद्वार और ऋषिकेश सब जगह लोग पार्टी करने जा रहे हैं |
 
धर्म और अध्यात्म की जगह से कोई सरोकार नहीं है, सरोकार है तो बस कुछ पल जोर जोर के संगीत के साथ शराब के नशे में झूम लेने से और एक साथ ‘हैप्पी न्यू इयर’ बोलकर सुबह फिर से बेसुध उबासी भरी जिंदगी में वापस लौट जाने से..
 
आख़िर हम इतने बेसुध कब से हो गए कि किसी भी ख़ास दिन के लिए इतनी पार्टी करनी पड़े |
पार्टी करना और पार्टीजीवी होना दोनों अलग अलग बाते हैं |
पार्टी की संस्कृति को अपनाते अपनाते पार्टीजीवी हो गए हम सबके सब |
सबको अब एक अच्छी और धमाकेदार पार्टी करनी है |
चाहे उसके लिए कोई बियर बार हो, निरीह पहाड़ हों या धर्मस्थल |
 
अभी कुछ वर्षों पूर्व तक यदि शांति चाहिए तो लोग पहाड़ों का रुख करते थें |
अब पहाड़ लम्बे लम्बे जाम के पर्याय बन गए हैं | कई किलोमीटर तक लम्बा जाम लग जाता है |
पहाड़ों पर रास्ते सकरे होते हैं | पहाड़ एक साथ इतनी जनसँख्या को बर्दाश्त करने के लिए नहीं हैं|
इससे न सिर्फ वहां की भीड़ बढ़ रही है बल्कि पूरा का पूरा वातावरण, पूरी प्रकृति प्रभावित हो रही है
 
जितने ज्यादा लोग होंगे उतनी अधिक मात्रा में संसाधनों की आवश्यकता होगी और उतना ही अधिक अपशिष्ट एवं अन्य दूषित पदार्थ वहां जमा होगा, जिससे पूरी की पूरी हवा बदल जाएगी या यूँ कहें की बदल रही है |
पहाड़ श्रापित हो रहे हैं, जो हमें शांति दे सकते थें अब वही शोर में समां गए हैं |
यह एक तरीके से प्रलय का आगमन है, जहाँ मानव सभ्यता किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुकी है |
सबको बस जश्न मनाना है |
 
नए साल में इस जश्न का रोग और भी अँधा हो जाता है |
लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि नयी तिथि के आगमन का स्वागत कैसे किया जाये |
सभी जश्न मना रहे हैं, पार्टी कर रहे हैं तो हमें भी करना है |
ढेर सारा पैसा खर्च करो, नहीं है तो भी जश्न मनाने के दबाव में पैसा खर्च करो |
जहाँ भीड़ है वहां जाकर भीड़ का हिस्सा बन जाओ और स्वयं को मनोरंजन दो |
 
कितनी बार तो लोगों का चेहरा देखने पर आभास होता है कि अमुक व्यक्ति को कुछ ख़ास आनंद आ नहीं रहा है इस तरीके के मनोरंजन में _परन्तु क्यूंकि यह पता ही नहीं इस नए दिन को कैसे मनाये, इसका स्वागत कैसे करें, तो बाकि दुनिया जैसा कर रही है वैसा काम करने में सम्मलित हो जाओ और उसी जश्न का हिस्सा बन जाओ |
 
यह जानने की कोशिश किये बिना कि क्या इस स्वागत को किसी और तरीके से भी मनाया जा सकता है ? जिसमें जीवन की सार्थकता निहित हो | जिसका उदगम जीवन की बोरियत या उबासी नहीं बल्कि सहजता हो |
 
सहजता एक सतत प्रक्रिया है संवेदना की, जितना व्यक्ति संवेदनशील होगा उतनी ही सहजता उसमें उतरती जाएगी |
जितना असंवेदनशील होगा उतनी असहजता एवं अंधे जश्न को मनाने की तीव्रता का बढ़ती जाएगी |
 
संवेदनशीलता आती है जागरूकता से, जागरूकता यह नहीं की ज़माने में क्या चल रहा है उसके बारे में हमें सब पता है, जागरूकता यह भी नहीं की राजनीती या फिर व्यापर या तकनिकी में आजकल क्या चल रहा है, उसके बारे में भी हमें सबकुछ पता है,
बल्कि जागरूकता है कि यह सब जो चल रहा है वह क्यूँ चल रहा है | क्या यह सब जो चल रहा है उसकी वाकई आवश्यकता हमको है या बस हमें बाज़ार का हिस्सा बनाकर हमारा दोहन किया जा रहा है |
 
जागरूकता है स्वयं का दोहन न होने देने से बचाना, जागरूकता तभी आएगी जब ज़िम्मेदारी होगी और जिम्मेदारी किस बात की जानने और समझने के इच्छा की, तो जब तक इस बात की जिम्मेदारी नहीं की हमें जानना या समझना है तब तक जागरूकता नहीं होगी और जागरूकता के न रहने पर संवेदना भी नहीं रहेगी |
 
एक असंवेदनशील व्यक्ति का जीवन सिर्फ़ उबासी से भरा रहेगा |
उबासी से भरा व्यक्ति उस उबासी को मिटाने के लिए कुछ भी कर सकता है,
वह नदी, पहाड़, मंदिर, धर्मस्थल, आसपास का वातावरण सबकुछ के दोहन के लिए तैयार रहेगा |
वह यह सबकुछ करेगा क्यूंकि उबासी में अशांति होती है, परन्तु व्यक्ति को शांति चाहिए,
वह इन दोहन के तरीके से शांति पाना तो चाहता है, जीवन को सार्थकता में जीना तो चाहता है
परन्तु वह ऐसा करने में अक्षम रहता है,
क्यूंकि शांति तो संवेदना में है, जो आती है जागरूकता से और यह व्यक्ति व्यस्त है मनाने में अँधा जश्न…
 
अब यह हमारे हाथ में है की हम अंधे जश्न का शिकार होते रहते हैं या फिर एक दिन जागरूक होने की कसम खाते हैं और संवेदना को जन्म देते हैं स्वयं के ही अंतर में, जिससे दोहन से अधिक सृजन के भागीदार बनें और बने रह सकें एक पूर्ण इन्सान बने रहने की यात्रा में,
यह यात्रा ही निरंतरता है जिसमें कोई भी अँधा जश्न विलीन हो जाता है…बस चुनना है तो यात्रा का मार्ग…
 
— अमित तिवारी

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