सुविचार – आखिर अंतर रह ही गया…… – 1021

आखिर अंतर रह ही गया……

बचपन में जब हम ट्रेन की सवारी करते थे, तो मां घर से सफर के लिए खाना बनाकर लें जाती थी, पर ट्रेन में जब कुछ लोगों को खाना खरीद कर खाते देखते, तो बड़ा मन करता कि हम भी खरीद कर खायें. पापा ने समझाया कि ये हमारे बस का नहीं है. अमीर लोग इस तरह पैसे खर्च कर सकते हैं, हम नहीं. बड़े होकर देखा, जब हम खाना खरीद कर खा रहें हैं, तो वो अमीर लोग घर से भोजन बांध कर ले जा रहें हैं. स्वास्थ के प्रति चेतन हैं वे.

आखिर वो अंतर रह ही गया……

बचपन में जब हम सूती कपड़ा पहनते थे, तब वो वर्ग टेरीलीन का वस्त्र पहनता था. बड़ा मन करता था टेरीलीन पहनने का, पर पापा कहते कि हम इतना खर्च नहीं कर सकते.

बड़े हो कर जब हम टेरीलीन पहने, तब वो वर्ग सूती के कपड़े पहनने लगा. सूती कपड़े महंगे हो गए. हम अब उतना खर्च नहीं कर सकते.

आखिर अंतर रह ही गया……

बचपन में जब खेलते खेलते हमारी पतलून घुटनो के पास से फट जाती, तो मां बड़ी ही कारीगरी से उसे रफू कर देती और हम खुश हो जाते. बस उठते बैठते अपने हाथों से घुटनो के पास का वो हिस्सा ढक लेते. बड़े हो कर देखा वो वर्ग घुटनो के पास फटे पतलून महंगे दामों में बड़े दुकानों से खरीद कर पहन रहा है, और हम उसे खरीद नहीं पा रहे हैं.

आखिर अंतर रह ही गया……

बचपन में हम साईकल बड़ी मुश्किल से पाते, और वे स्कूटर पर जाते. जब हमने स्कूटर खरीदा, तो वो कार की सवारी करने लगे और जब तक हमने मारुती खरीदी, वो बीएमडब्लू पर जाते दिखे.

आखिर अंतर रह ही गया……

और हमने जब अंतर मिटाने के लिए रिटायरमेंट का पैसा लगाकर BMW खरीदी, तो वो वर्ग साइकिलिंग करता नजर आया.

आखिर अंतर रह ही गया……

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