दुःख को जानना और दुःख भरी बातें करना दोनों में बड़ा आयामी अंतर है…
_ दुःख को जानना दुखों को समा लेना उनको स्वीकार कर लेना है पर दुःख पे दुःख भरी बातें करते जाना, एक के बाद एक दुःख को खोद खोदकर निकालना, जहां नहीं है वहां दुख को बना देना, अगला दुख, पिछला दुख, न जाने किनका किनका दुःख जिनसे बात करने वाले का सरोकार नहीं यही दिखाता है कि इंसान दुख को आदत बनाकर उससे रस लेता है…
– दुख का रस…
_ यह रस बड़ा गहरा होता है, जिसके मुंह इसका स्वाद लगा वह छोड़ नहीं पाता,
_ ऐसा नहीं की दुख नहीं, जीवन है तो दुख है, पर दुख का रस स्वयं बनाते हैं चाशनी मिलाकर…
_ सामने वाले का रस लेकर सुना जाना सुनाने वाले का हासिल होता है…
_ पर इससे असली दुख नजरअंदाज नहीं होता, वह तो है ही…वहीं है ठीक वहीं..!!