किसी के अंदर इतना भी मत झांको कि अपनी नाक को कपड़े से ढकना पड़े.
_ कभी-कभी हम जिज्ञासा या लगाव में दूसरों के भीतर इतना झांकने लगते हैं कि उनके छिपे हुए अंधेरे, कमज़ोरियाँ या असलियत हमें असहज करने लगती है.
_ तब हमें खुद को बचाने के लिए “नाक ढकनी” पड़ती है—यानी दूरी बनानी पड़ती है.
_ हर इंसान के भीतर कुछ सुंदर होता है और कुछ बोझिल भी..
_ हमें इतना ही देखना चाहिए जितना हमारे लिए आवश्यक और स्वस्थ हो.
_ क्योंकि दूसरों की गहराइयों में उलझकर हम अपनी रोशनी को धुंधला नहीं कर सकते.
_ असली संतुलन यही है: जानकारी और दूरी, अपनापन और सीमाएँ—इनके बीच सही रेखा खींचना.!!