ईमानदार आदमी कभी खुदगर्ज नहीं होता, और बेईमान किसीका सगा नहीं होता ; स्वयं का भी नहीं.
जितना हम पढ़े लिखे हुए हैं, दरअसल हम उतने ही बेईमान बने हैं, _
_ गहराई से सोचें तो ये बात सही लगती है कि पढ़े लिखे लोग हर चीज को मुनाफे से तौलते हैं, _
_ ये बात समाज को तोड़ रही है, शिछा मतलब ये नहीं कि इंसानियत को ही भूल जायें !!
दूसरे की तकलीफ़ समझना ताक़त की नहीं, इंसानियत की निशानी है.. और यह गुण
हर किसी में नहीं होता.!!
हर किसी में नहीं होता.!!