सुलझना जटिल प्रक्रिया है, उलझना बड़ा आसान है.
_ सुलझाव के लिए जागृति चाहिए, होश चाहिए, सचेतना चाहिए.
_ इसके विपरीत जरा सी असावधानी हुई कि उलझे ही उलझे..
_ उलझन को सुलझाने में पीड़ा महसूस होती है, उलझन में पड़े रहने की आकांक्षा उठती है…यह होश ही नहीं रहता कि उलझते उलझते हम किस गर्क में आ गए हैं.
_ नीम बेहोशी में चले कि उलझे…होश में आने से डरते हैं,
_ हम इसलिए भी डरते हैं कि नीम बेहोशी में हमारे उलझने को हमारे होश में आते ही हम पर थोप दिया जाएगा…हजारों लांछन लगाए जाएंगे…उपहास उड़ाया जाएगा.
_ इसकी चिंता छोड़ ही देनी चाहिए…जो बीत गया बेहोशी में…उसे छोड़ ही दो…जो घटित हो गया हमारे अध्यान में उसे जाने ही दो.
_ राह में चलते हुए न जाने कितनी दफा हम भटक ही जाते हैं…
_ भटक जाना परेशानी नहीं है…भटक कर वहीं खड़े हो जाना परेशानी है…।
_ कई बार मार्ग में हम गिर पड़ते हैं…गिर पड़ना मुसीबत नहीं है…गिरकर न उठ पाना मुसीबत है.
_ अपने उलझन का सिरा पकड़िए…कठोर हाथों से नहीं…बिल्कुल नर्म स्पर्श के साथ…आहिस्ता आहिस्ता सुलझाइए….
_ कुछ समय बाद ही आपके बेहोशी…आपके अध्यान की उलझन सुलझने लगेगी।।
– अविनाशराही