सुविचार – बचपन – बच्चे – 017

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जब मैं छोटा था तब मुझे बड़ा होने की बड़ी जल्दी थी ! आज समझ आया की वो बचपन ही अच्छा था, जब ना किसी की ज़रूरत थी और ना कोई ज़रूरी था.

बचपन चला गया ___ज़िन्दगी की सबसे कीमती _ निशानी चली गई _
वो बचपन बहुत प्यारा था,_ जो कभी हमारा था..!!
बच्चे दर्पण की तरह होते हैं, हमारे लाख छिपाने की कोशिश के बावजूद भी

एक बच्चे में सच को समझने की अनोखी योग्यता होती है.

बच्चे कोरे कपड़े की तरह होते हैं, जैसा चाहो वैसा रंग लो,

उन्हें निश्चित रंग में केवल डुबो देना पर्याप्त है.

बड़े हो चुके होने का एहसास दिला के जिंदगी, झिंझोड़ देती है

बचपन तब ही ख़त्म हो जाता है जब, माँ डाँटना छोड़ देती है।……..

*बचपन साथ रखियेगा ज़िन्दगी की शाम में,*

*उम्र महसूस ही न होगी, सफ़र के मुक़ाम में*

” मिट्टी भी जमा की और खिलौने भी बना कर देखे

ज़िन्दगी कभी न मुस्कुराई फिर बचपन की तरह “

भागते बचपन में भी थे, भागते आज भी हैं !! _

_बस्ता वही है, बस अंदर का सामान बदल गया है !!!

वो बारिश का पानी, वो कागज़ की नाव _

_ बचपन को जिया है, मैंने फिर से एक बार ..

वो शरारत, वो मस्ती का दौर था, _

_ वो बचपन का मज़ा ही कुछ और था !!

लौट कर आती हैँ, वो तारीखें ,,

_ लौट कर, वो दिन नहीं आते …!!

बचपन बीत गया है अब, अब वो ज़माने नहीं आते _

_ यार पुराने दूर हैं मुझसे, अब वो ग़म मिटाने नहीं आते ..

इतनी चाहत तो लाखो रु पाने की भी नही होती,

जितनी बचपन की तस्वीर देखकर बचपन में जाने की होती है…….

बचपन साथ रखिए जिंदगी की शाम में

उम्र महसूस ही ना होगी सफर के मुकाम में।

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में

फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते.

इसलिए तो बच्चों पर नूर बरसता है,

शरारतें करते हैं, साज़िशें तो नहीं.

बच्चे पौधों के समान होते हैं –

वे प्रेम, प्रसन्नता और स्वतंत्र वातावरण में बढ़ते हैं.

आता है याद मुझ को बचपन वो जमाना,

रहता था साथ मेरे खुशियों का जब जमाना..

गरीबों की बस्ती में जरा जाकर तो देखो,

वहाँ बच्चे भुखे तो मिलेगें, मगर उदास नही.

दोस्ती तो बच्चे ही कर सकते हैं,

बड़े तो समझौते और सौदेबाज़ी करते हैं !

अब तो बच्चे भी परिंदों जैसे हो गए हैं,

साथ रह कर बड़े होते हैं __ और बड़े हो कर उड़ जाते हैं..

” बचपन की यादों का सफर “

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ए बचपन, मीठा कितना था तेरा सफर
प्यारा कितना, तेरी यादों का सफर
बीत गए कितनी जल्दी बरस दर बरस
पर ठहर गया तेरी बातों का सफर ।
किताब मांगना, फिर उसे लौटा देना
छत पर आना उसका, वो रातों का सफर।
रूठना बिना बात मेरा, मनाना तेरा
देखना साथ हमारा, तारों का सफर।
क्यों हुआ बचपन की बातो का छिड़ना
हां वो मास्टर जी की बेतों का सफर।
होली में भीगना, गुब्बारे फोड़ना
बहुत सुहाना था त्योहारों का सफर।
याद है वो हौज पे घंटो नहाना
सुहाना था सुबह की सैरों का सफर।
याद वो कपिल का वर्ल्ड कप जीतना
रेडियो पर मुकेश के गानों का सफर।
जून की तपती दोपहरी में खेलना
प्यारा लू से बेपरवाहियो का सफर।
वो नानाजी का प्यार से पढ़ाना
उनकी बेपनाह मुहब्बतों का सफर।
सिलसिला छिड़ा तो, उसका बंद न होना
ए बचपन, मीठा कितना था तेरा सफर
प्यारा कितना, तेरी यादों का सफर
आज बच्चों को शोर मचाने दो

कल जब ये बड़े हो जाएँगे
ख़ामोश ज़िंदगी बिताएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
गेंदों से तोड़ने दो शीशें
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
दिल तोड़ेंगे या ख़ुद टूट जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
बोलने दो बेहिसाब इन्हें
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
इनके भी होंठ सिल जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
दोस्तों संग छुट्टियों मनाने दो
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
दोस्ती-छुट्टी को तरस जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
भरने दो इन्हें सपनों की उड़ान
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
पर इनके भी कट जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
बनाने दो इन्हें काग़ज़ की कश्ती
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
ऑफ़िस के काग़ज़ों में खो जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
खाने दो जो दिल चाहे इनका
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
हर दाने की कैलोरी गिनाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
रहने दो आज मासूम इन्हें
कल जब ये बड़े हो जाएँगे
ये भी “#समझदार” हो जाएँगे
हम-तुम जैसे बन जाएँगे
एक सुझाव : – ध्यान रहे कि मैं बच्चे के जन्म के खिलाफ नही हूं _लेकिन जब हमें पता है कि बच्चे के जन्म होते ही क्या होने वाला है _उसके साथ _तो हम सोच सकते हैं कि क्या करना है,
_यदि आप उन छोटे बच्चों का ध्यान जीवन भर रख सकते है तो _जरूर जन्म लेने दें और उनका ख्याल रखें _लेकिन ये भी ध्यान रहे कि _बिना सोचे समझे बच्चे पैदा न करें..!!
आजकल के बच्चों में जिंदगी के झटके सहने की क्षमता बहुत कम है ;
_यही कारण है कि आज मानसिक अवसाद और तनाव अधिक व्याप्त है.!!
बच्चों की अपनी जिंदगी होती है, उन्हें जीने दीजिए, वे साथ दें तो धन्यवाद, साथ न दें तो भी आशीर्वाद दें >>’वृद्धावस्था में स्वयं स्वाबलंबी और समर्थ बनें रहें, बाकी सब मिथ्या..!!
फिर साथ मिले या आदर- सत्कार मिले तो ” सोने पर सुहागा “
स्वयं को अक्षम समझना हमें हीन, कमजोर और लाचार बनाता है,

_जबकि दूसरों में दोष देखना, हमें परछिद्रान्वेषी, घमंडी, ईर्ष्यालु, बहानेबाज और गैरजिम्मेदार बनाता है.
_मनुष्य के लिए आदर्श और सकारात्मक सोच है- मैं सही, तुम भी सही..
_ डा॰ एरिक बर्न की उक्त कसौटी पर माता-पिता और उनके बच्चों के मध्य विकसित होने वाले मनोभावों को आसानी से समझा जा सकता है.
_बचपन में माता-पिता पर निर्भरता बच्चे पर उनके प्रति अनुकूल प्रभाव रखती है,
_लेकिन उस निर्भरता के समाप्त होते ही, वह आत्म-स्वतन्त्रता की ओर उन्मुख होने लगता है.
_माता-पिता का मार्गदर्शन और आदेश उसे नहीं सुहाता.
_ दरअसल, वयस्क मन स्वयं समझ विकसित करके निर्णय लेना चाहता है,
_जिसमें माता-पिता उसे बाधक समझ आते हैं.
_यहीं से उनके मध्य मतभेद उत्पन्न होने लगते हैं,
_जो धीरे-धीरे मनभेद की ओर बढ़ जाते हैं, और कालांतर में संघर्ष का रूप ले लेते हैं.
– द्वारिका प्रसाद अग्रवाल [ लेखक ]

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