सुविचार – बेटा – लड़का _ 023

तेरा बेटा बहुत बड़ा अदाकार बन गया माँ, _

_ ये अब अंदर से रोता है बाहरी मुस्कान लिए…!!

लड़का होना भी कहां आसान है, _

_ आधे से ज्यादा सपने तो दूसरों के पूरे करने पड़ते हैं..!!

“वो लड़का जो” नज़र एक अलहदा रखता था ज़माने को देखने की..

_ आजकल ढूंढता रहता है खुद को “ज़माने भर में..”

हम लड़के हैं साहब, _ _

_ घर बनाने के लिए अपना घर ही छोड़ देते हैं..!!

सबसे बड़ा दुख तो तब होता है.. जब लड़के घर छोड़कर परदेश के लिए निकलते हैं,

_और अपनों को रोता हुआ देख कर.. उस समय कोई शब्द ना सुनायी देता है..
_ और न ही कुछ बोला जाता है..!!
लड़कों के हिस्से आता है अक्सर… ख्वाहिशों को दमन करने का तरीका,

_ परिवार की जिम्मेदारियां, घाम–सर्द से परे काम पे जाने की अनिवार्यता,
_ त्यौहार पे घर जाने को छुट्टी न मिलने की वज़ह से छाई उदासी,
_ सुख चुकी प्रेम की नदियां, और पहाड़ बन भावशून्य हो जाने का प्रयास.
_ इस बीच किसी का उनकी ओर हंसकर देखना, दो घड़ी बात कर लेना और उनका घर से परस्पर संपर्क साधे रखना..
…..सुकून से बढ़कर कुछ भी ग़र हो तो वही मिल जाता है !!
मैं लाखों दर्द होने पर भी मुस्कुराता हूं ;

_ मैं लड़का हूं अगर रोया तो मेरी तौहीन होगी_

हम लड़के हैं साहब,, _ मुसीबतों में भी मुस्कुराते हैं…!!

_ हम लड़के कितनी भी कोशिशें कर लें, वो पूरी नही पड़ती और उस पे ये बोझ रहता है कि हम बता नही पाते कि ..हमने बहुत चाहा मगर कर कुछ ना सके,

_क्योंकि हम जानते है कि दुनिया परिणाम देखती है, कोशिशें नही…!

*एक उम्र के बाद लड़कों से खैरियत कौन पूछता हैं,*

*कोई नौकरी का पूछता है कोई सैलरी का पूछता है !!

एक लड़के का पूरा संघर्ष एक ही लाइन में तोल दिया जाता है “कितना कमाते हो ?”
इस समाज में लड़कों और पुरुषों के लिए सबसे मुश्किल काम है ‘बिना आँसुओं के रोना’
लड़के का सच में घर से चले जाना, मतलब सुख उम्मीद में..!!

_ लेकिन बहुत सी बातें उसके अंदर ही अंदर हलचल मचाती रहती हैं और भीतर बहुत कुछ उमड़ता घुमड़ता रहता है.

लो आ गई बेटे के ऊपर भी कविता ………

X

घर की रौनक है बेटियां, तो बेटे हो-हल्ला है,

गिल्ली है, डंडा है, कंचे है, गेंद और बल्ला है,

बेटियां मंद बयारो जैसी, तो अलमस्त तूफ़ान है बेटे,

हुडदंग है, मस्ती है, ठिठोली है, नुक्कड़ की पहचान है बेटे,

आँगन की दीवार पर स्टंप की तीन लकीरें है बेटे,

गली में साइकिल रेस, और फूटे हुए घुटने है बेटे,

बहन की ख़राब स्कूटी की टोचन है बेटे,

मंदिर की लाइन में पीछे से घुसने की तिकड़म है बेटे,

माँ को मदद, बहन को दुलार, और पिता को जिम्मदारी है बेटे,

कभी अल्हड बेफिक्री, तो कभी शिष्टाचार, समझदारी है बेटे,

मोहल्ले के चचा की छड़ी छुपाने की शरारत है बेटे,

कभी बस में खड़े वृद्ध को देख, “बाउजी आप बैठ जाओ” वाली शराफत है बेटे,

बहन की शादी में दिन रात मेहनत में जुट जाते है बेटे,

पर उसकी ही की विदाई के वक़्त जाने कहा छुप जाते है बेटे,

पिता के कंधो पर बैठ कर दुनिया को समझती जिज्ञासा है बेटे,

तो कभी बूढ़े पिता को दवा, सहारा, सेवा सुश्रुषा है बेटे,

पिता का अथाह विश्वास और परिवार का अभिमान है बेटे,

भले कितने ही शैतान हो पर घर की पहचान है बेटे.

“हर उस बेटे को समर्पित जो घर से दूर है”

*बेटे भी घर छोड़ जाते हैं.

जो तकिये के बिना कहीं…भी सोने से कतराते थे…

आकर कोई देखे तो वो…कहीं भी अब सो जाते हैं…

खाने में सो नखरे वाले..अब कुछ भी खा लेते हैं…

अपने रूम में किसी को…भी नहीं आने देने वाले…

अब एक बिस्तर पर सबके…साथ एडजस्ट हो जाते हैं…

बेटे भी घर छोड़ जाते हैं.!!

घर को मिस करते हैं लेकिन…कहते हैं ‘बिल्कुल ठीक हूँ’…

सौ-सौ ख्वाहिश रखने वाले…अब कहते हैं ‘कुछ नहीं चाहिए’…

पैसे कमाने की जरूरत में…वो घर से अजनबी बन जाते हैं

लड़के भी घर छोड़ जाते हैं.

बना बनाया खाने वाले अब वो खाना खुद बनाते है,

बीवी का बनाया अब वो कहाँ खा पाते है.

कभी थके-हारे भूखे भी सो जाते हैं.

लड़के भी घर छोड़ जाते हैं.

मोहल्ले की गलियां, जाने-पहचाने रास्ते,

जहाँ दौड़ा करते थे अपनों के वास्ते,,,

माँ बाप यार दोस्त सब पीछे छूट जाते हैं

तन्हाई में करके याद, लड़के भी आँसू बहाते है

लड़के भी घर छोड़ जाते हैं

नई नवेली दुल्हन, जान से प्यारे- भाई,

छोटे-छोटे बच्चे, चाचा-चाची, ताऊ-ताई,

सब छुड़ा देती है , ये रोटी और कमाई.

मत पूछो इनका दर्द वो कैसे छुपाते हैं,

बेटे भी घर छोड़ जाते हैं.

करते हैं ये फ़रमाहिशें पूरी सबकी, और अपनी जरूरतों का जिक्र तक नहीं करते..

जी हाँ ये लड़के ही हैं जनाब, जो उठाये रहते हैं जिम्मेदारियां कंधो पर
मगर उफ्फ तक नहीं करते..
यूँ तो दिल में समन्दर भरा है इनके, पर आँखों में कभी नमी नहीं होती.
और जितना सोचते हैं हम, लड़कों की जिंदगी उतनी आसान नहीं होती
घर में बड़े हैं या छोटे, कंधे हमेशा जिम्मेदारियों से भरे रहते हैं.
अपने ही परिवार की खातिर, ये अपनों से ही दूर रहते हैं.
घरवाले परेशान न हों इनकी फ़िक्र में, इसलिए फ़ोन पे हर बार मैं ठीक हूँ ही कहते हैं.
लड़की की बिदाई में तो ज़माना रोता, और इनके घर छोड़ जाने की चर्चा कोई खास नहीं होती.
जितना सोचते हैं हम, लड़कों की जिंदगी उतनी आसान नहीं होती.
माँ के लाडले बेटे हैं बेशक, पर अपनी अलग पहचान बनानी पड़ती है,
एक नौकरी की खातिर, सैकड़ों ठोकरें खानी पड़ती हैं.
कभी हर बात में ढेरों नखरे होते थे जिनके, बाहर रह कर सारी फ़रमाहिशें भुलानी पड़ती हैं.
कुछ लड़कों को जरूरतें जगाए रखती हैं, और कुछ को जिम्मेदारियां सोने नहीं देतीं.
और जितना सोचते हैं हम, लड़कों की जिंदगी उतनी आसान नहीं होती.
फिर एक वक़्त वो भी आता है, जब इन्हें प्यार होता है.
एक तरफ गर्लफ्रेंड तो दूसरी तरफ परिवार होता है.
जिंदगी को चुने तो घरवाले नाराज, घरवालों की सुनें तो सर पर बेवफाई का ताज होता है.
किसी भी हालत में उलझनें इनकी कम नहीं होती.
और जितना सोचते हैं हम, लड़कों की जिंदगी उतनी आसान नहीं होती.
किसी भी हाल में शांत रहने का हुनर, इनमें कमाल होता है.
चीजों को सोचने समझने का नजरिया भी बेमिशाल होता है.
छोटी छोटी बातों पर, ये अपना धीरज नहीं खोते.
पर इसका मतलब ये नहीं की इन्हें दर्द नहीं होता या इनके जज़्बात नहीं होते.
परेशानियां तो इनकी राहों में भी आती हैं, पर उनसे उनकी हिम्मत कभी कम नहीं होती.
और जितना सोचते हैं हम, लड़कों की जिंदगी उतनी आसान नहीं होती.
यारों के ये यार कहलाते हैं, निभाते हैं साथ तब भी, जब सब साथ छोड़ जाते हैं.
घर में पापा के सामने इनकी जुबां नहीं खुलती, वो बाहर निगाहों से ही कमाल कर जाते हैं.
माँ, बहन, गर्लफ्रेंड सबसे हर रिश्ता, बखूबी निभाते.
और दोस्तों की दोस्ती से बढ़ कर, इनके लिए कोई चीज नहीं होती.
और जितना सोचते हैं हम, लड़कों की जिंदगी उतनी आसान नहीं होती.
करते हैं फ़रमाहिशें ये पूरी सबकी, और अपनी जरूरतों का जिक्र तक नहीं करते..
अल्हड़ सा हुँ मे, मुझे अब भी अल्हड़ सा ही रहने दो ना ……

क्या हुआँ जो उम्र 26 की हो गई हैं,

मुझे अब भी 5 का रहने दो ना ….।।।

क्या हुआँ जो मे समझदार हो गया हुँ,

मुझे अब भी नाँदनियाँ करने दो ना ….।।।।

क्या हुआँ जो मान जाता हूँ मै सबकी हर बात,

मुझे अब भी बात – बात पर रुठने दो ना …।।।।

क्या हुआँ जो मे बड़ा लड़का बन गया,

मुझे अब भी बच्चा बने रहने दो ना …।।।।

अल्हड़ सा हुँ मे, मुझे अब भी अल्हड़ सा ही रहने दो ना …..

” बेटे भी पराए होते हैं “

उठ कर पानी तक न पीने वाले अब कपड़े खुद धो लेते हैं,

कल तक जो घर के लाडले थे, आज वो अकेले में रो लेते हैं.

बाप के डांटने पर अम्मी से शिकायत करने वाले,

आज वो अकेले में रो लेते हैं

सिर्फ बेटियां ही नहीं, बेटे भी पराए होते हैं.

खाने में सौ नखरे करने वाले, अब खुद पकाके कच्चा पक्का खा लेते हैं,

बहन को छोटी छोटी बात पर तंग करने वाले, अब बहन को याद करके रो लेते हैं,

अम्मी के बाज़ू पर सर रखकर सोने वाले, अब बगैर बिस्तर के ही सो लेते हैं,

सिर्फ बेटियां ही नहीं, बेटे भी पराए होते हैं.

हम लड़के हैं _

मन के अंदर उठे बवंडर को,
इन शब्दों ने ख़ुद में कैद कर लिया,
हम बोले तो बत्तमीज,
न बोले तो गुस्सा,
हम रोये तो कमज़ोर,
न रोये तो सख़्त,
हम उदास नहीं हो सकते,
हमें दूसरों के लिए कंधा बनना है,
हम सुकूँ को कमा कर सब पर लुटा देंगे,
लेकिन ख़ुद पर कभी नहीं,
हम ज़िद करें तो बड़े बना दिए जाते,
और बड़े बनने की कोशिश करें तो,
“बच्चे हो” कह कर चुप करा दिए जाते हैं,
कौन सा काम कब करना है हम ही बताते हैं,
“काम नहीं करता” का ताना सुना दिया जाता है,
मन में वेदनाएं नहीं हो सकती,
क्योंकि उसमें स्त्रियों का हक़ है,
मन की व्यथा नहीं हो सकती,
क्योंकि वो भी औरतों के हिस्से में आता है,
हर सपने को तुम्हारे,
उनके सपने का रोड़ा बनाया जाता है,
पैदा होते ही नौकरी कर लो,
ऐसा दबाव बनाया जाता है,
हर पल कम्पेयर की तलवार तुम्हारे गले से उतारी जाती है,
निकम्मा,
कामचोर,
गंवार,
बेढंगा और न जाने कितनी गालियाँ सुनाई जाती है,
कोई पूछेगा नहीं,
तुम उदास क्यों हो?
कोई पूछेगा नहीं,
तुम गुस्सा क्यों हो?
तुम्हारे नाराजगी को भी तुम्हारी नाकामयाबी से तौला जाएगा,
असफ़लता का दर्पण तुम्हें दिखाया जाएगा,
जिल्लत की चरमसीमा जब सर पर होगी,
आँसू आँख से तब भी बाहर न निकल पायेगा,
और दिल अंदर से रोयेगा,
हो सकता है तुम्हारा दिल आँसुयो से भीग जाएगा,
और शायद दिमाग़ में जीने मरने का ख़याल आये,
लेकिन फिर भी तुम उनके बारे में सोचोगे,
पाल-पोश इतना बड़ा किया,
ख़ुद को इसी बहाने रोकोगे..
और फिर एक नाकाम कोशिश करने में लग जाओगे,
और जैसे ही नाकामी हाँथ लगेगी,
तो शायद तुम हार जाओगे,
और कर लोगे,
वो जो सब चाहते हैं,
सुनाने लगेंगे सब तुम्हारी नाकामयाबी के किस्से,
तब तुम्हारे सपने को कोसा जाएगा,
“पता नहीं क्या कर रहा था”
हर व्यक्ति के सामने टोका जाएगा…
तुम तब भी,
एक पेड़ की भाँति खड़े रहोगे,
अपने आप के दबाए,
बवंडर से डरे रहोगे,
और फिर….
जैसे मैंने इसे शब्दों को सौंप दिया,
तुम भी किसी को सौंप दोगे,
और ख़ुद को शांत रखने की नाकाम कोशिश करोगे,
जब सब कि जीत होगी शायद तुम भी शामिल होगे,
ख़ुद का हार जाने का गम भी तुम छिपा लोगे,
“और भाई कैसे हो?”
“मज़े में हूँ”! इतना कहकर मुस्कुरा दोगे।
हम लड़कें हैं।
हम सबकी सुनेंगे…
लेकिन हमें कोई नहीं….
कोई नहीं सुन सकता…
कौन कहता है हम लड़के अच्छे नही होतें

हम आपस में कितना भी मजाक कर लें, कोई बुरा नही मानता किसी बात का,

हम आजाद होते हैं जब आपस में बात करतें हैं, हम पर नैतिकता का बोझ नही होता,

हम पर कोई बनावटी उसूलो का दबाव नही होता, जब हम आपस में बात करते हैं,

हम स्वच्छंद और आजाद होते हैं, सच मुच हम लड़के बड़े दिल वाले हैं,

छोटी छोटी बातों को दिल पर नही लगातें, गैरो को भी अपना मानकर प्यार लुटातें,

हमारे लिए तो सबकुछ अपना ही होता, ना ओवर ईगो ना घमण्ड,

खुद खुश रहते हैं औरों को हंसाते हैं, साला हम लड़के कितने प्यारे हैं.

मैं मिला हूं उन लड़कों से जो घर से निकलते तो हैं खुद के सपने लेकर लेकिन समय की मार के आगे घुटने टेक कर वह अपनों के सपने पूरे करने में लग जाते हैं, हालांकि कुछ लड़के अपनों के सपनों के लिए भी घर से निकलते हैं, लेकिन उन सपनों को पूरा करते-करते वह खुद को खो देते हैं, वह लड़कपन खो देते हैं, वह भी घर छोड़ते हैं, उन्हें भी घर की याद आती है लेकिन वह रोते नहीं है क्युकी लड़के रोते नहीं हैं.

मैं मिला हूं उन लड़कों से, जो के बड़े बाल और बड़ी दाढ़ी में खुद को छुपा लेते हैं लेकिन धीरे धीरे इनके बाल और दाढ़ी भी उनके सपनों की तरह इनका साथ छोड़ने लगती है धीरे-धीरे वह भी पकने लगती है,

मैं मिला हूं उन लड़कों से, जो किताबों में खो गए हैं जो मशीनों की नीचे सो गए हैं, जो कंप्यूटर के आगे रो रहे हैं, जो फाइलों में खुद को खो रहे हैं, फिर भी जिंदगी से मिलते वक्त वह मुस्कुराते हैं, वह गुनगुनाते हैं और दुनिया की नजर में वह लड़के बेपरवाह बन जाते हैं.

मैं मिला हूं उन लड़कों से जिनके सपनों में खुद के लिए सपने नहीं होते हैं, जो दौड़ते हैं लंबी रेस में, जो की उनकी खुद की रेस कभी नहीं होती, ऐसे लड़कों का सपना तो महज इतना सा ही था, लेकिन खुद को खुद से मिलाते मिलाते वह खुद से बहुत दूर चले जाते हैं, मैं मिला हूं लड़कों से जो खुद के लिए जीने से पहले दूसरों के लिए जीना चाहते हैं.

मैं मिला हूं उन लड़कों से जिनकी मुस्कुराहट झूठी होती है, …

ऐसे लड़के जो हाथों में गिर्स लगाए उंगलियों में फाइलों को चिपकाए, दिमाग को काम लगाएं, कंप्यूटर पर नज़रे ठिकाए, अपने गांव अपने माटी से ना जाने कितनी दूर, मुस्कुराने की झूठी कोशिश में मुस्कुरा रहे हैं.

“लड़के भी घर छोड़ के जाते हैं,”

ये जहां रहते हैं, वहां आस पास के लोग भी इनसे वस्ता नहीं रखते हैं,

लोगो को सोचना चाहिए कि वो भी किसी के बच्चे हैं,

अपने घर से दूर अनजान जगह रह रहे हैं तो उनकी मदद करनी चाहिए,

बदले में वो भी आपको पूरी इज्जत देते हैं या कभी आपको जरूरत पड़े तो काम भी आते हैं.

लड़के…

लड़के !
जब घर से जाते हैं तो,
साथ ले जाते हैं उम्मीदें,
प्यार से भरे मुट्ठी भर लम्हें,
और भाई बहनों के झगड़े,
लड़के !
जब घर से जाते हैं,
तो सूना कर जाते हैं,
बैठक का कमरा, गाँव की गालियाँ
बाहर के बरामदे की चारपाई,
और घर का आँगन,
लड़के !
जब घर से जाते हैं,
तो बहुत सारे झूठे वादे करते हैं,
जैसे माँ से जल्दी आने का,
पिता से दूर हो कर भी खुश होने का,
छोटी बहन से अगली बार बड़ा गिफ्ट,
और भाई से अगली बार ज्यादा दिन रुकने का,
लड़के !
जब घर से जाते हैं,
तो नम रखते हैं अपना हृदय,
लेकिन नही भीगने देते अपनी पलकें,
गला भर जाता है,
तो हँस कर छुपा देते है अपने आँसू,
और चले जाते हैं सबसे मुड़कर,
इसलिए!
कभी आसान नही होता,
लड़कों का घर से चले जाना…!!
© रत्नेश अवस्थी (उन्नाव, उत्तर प्रदेश)
लड़के मार डालते हैं अपनी मुलायमित को मर्द बनते ही !

_ज़िम्मेदारियों का बोझ टाँगे हर दिन एक सफ़र पर निकलते हैं.
_इस सफ़र में उसे सफल होने की जल्दी रहती है.
_उसे पति-बाप-बेटा सब बनना होता है.
_वो बन भी जाते हैं मगर अंदर के अपने उस लड़के को मार कर.
_जो शायद चित्रकार, क़िस्सागो, लेखक, नायक या फिर संगीतकार और गायक हो सकता था.
_मगर उसने चुना एक सफल पति या बाप होना.
_उसने बड़ी बेरहमी से पहले उस लड़के को मारा फिर शेष बचे प्रेमी को.
_वो सफल मर्द बन गया.
_लेकिन इन्हीं में से किसी सफ़र के दौरान कभी अंदर के चित्रकार को मेट्रो से उतरते वक़्त ढकेल दिया पटरियों पर और इल्ज़ाम भीड़ पर धर दिया.
_किसी दिन बाथरूम में ऑफ़िस जाने की जल्दी में, गुनगुनाते हुए गला दबा दिया उस गीतकार का जो सिरज सकता था प्रेम के कई नए गीत.
_कभी किसी दिन पुल के ऊपर से गुज़र रहे बस में से फेंक दिया बस्ता वो जिसमें कई कहानियाँ थीं.
_जो लिखा था कभी कॉलेज वाले अशोक के पेड़ के नीचे बैठ कर.
_उस लड़की की कल्पना में जो उसे किसी ऐड फ़िल्म के पोस्टर में दिखी थी.
_उस लड़की को देखते हुए उसने सोचा था कि एक दिन उसकी प्रेमिका जो होगी तो ऐसी ही होगी.
_और उसे तब सुनाएगा वो ये कहानी.
_लेकिन वो बजाय बनने के प्रेमी उसे समाज ने पति बना दिया.
_पति ऐसा जिसे निभाने थे सारे फ़र्ज़.
_पति के बाद बाप.
_जिसे कमाना था सिर्फ़ रोटी ही नहीं बल्कि पिज़्ज़ा, वीकेंड पर मूवी के लिए पैसा, गजरे के बदले साग-सब्ज़ी और हफ़्ते भर की ग्रोसरी. स्कूल का फ़ी, जूते और कराटे क्लास का फ़ी भरने के लिए पैसा और ख़ूब पैसा.
_वो कमाता गया. साथ अर्ज़ता गया शोहरत भी मगर अपने अंदर के उस लड़के को मार वो अब खोखला हो चुका है.
_वो बस मर्द है.
_मुलायमियत बाक़ी नहीं रही उसमें कोई.
_उसे अब पसीजना नहीं आता.
_उसे रोना भी नहीं आता.
_वो अब स्ट्रॉंग पापा और पर्फ़ेक्ट पति बन चुका है.
… लेकिन एक मुर्दा लड़का उसके अंदर कहीं अभी भी एकाध साँस में धड़क लेता है !
~अज्ञात

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