अगर हम मृत्यु को ठीक से पहचान लें, तो इस पृथ्वी पर वैर का कारण न रह जाए.
_ जहां से चले जाना है, वहां वैर क्या करना ?
_ जहां से चले जाना है, वहां दो घड़ी का प्रेम ही कर लें.
_ जहां से विदा ही हो जाना है, वहां गीत क्यों न गा लें, गाली क्यों बकें ?
_ जिनसे छूट ही जाना होगा सदा को, उनके और अपने बीच दुर्भाव क्यों पैदा करें ?
_ कांटे क्यों बोए ? थोड़े फूल उगा लें, थोड़ा उत्सव मना लें, थोड़े दीए जला लें !
_ वास्तव में यही सच्चा धर्म है इस पृथ्वी का और उसके मनुष्य का.
_ जिस व्यक्ति के जीवन में यह स्मरण आ जाता है कि मृत्यु सब छीन ही लेगी; यह दो घड़ी का जीवन, इसको उत्सव में क्यों न रूपांतरित करें !
_ इस दो घड़ी के जीवन को प्रार्थना क्यों न बनाएं ! पूजन क्यों न बनाएं !
_ झुक क्यों न जाएं-कृतज्ञता में, धन्यवाद में, आभार में! नाचें क्यों न, एक-दूसरे के गले में बांहें क्यों न डाल लें !
_ मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी.
_ यह जो क्षण-भर मिला है हमें, इस क्षण-भर को हम सुगंधित क्यों न करें !
_ इसको हम धूप के धुएं की भांति क्यों पवित्र न करें, कि यह उठे आकाश की तरफ, ईश्वर की गूंज बने !
– OSHO