सुविचार – *”तीन पहर”* – 1051

*”तीन पहर”*

तीन पहर तो बीत गये,

बस एक पहर ही बाकी है।

जीवन हाथों से फिसल गया,

बस खाली मुट्ठी बाकी है।

सब कुछ पाया इस जीवन में,

फिर भी इच्छाएं बाकी हैं।

दुनिया से हमने क्या पाया,

यह लेखा जोखा बहुत हुआ,

इस जग ने हमसे क्या पाया,

बस यह गणनाएं बाकी हैं।

तीन पहर तो बीत गये,

बस एक पहर ही बाकी है।

जीवन हाथों से फिसल गया,

बस खाली मुट्ठी बाकी है।

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इस भाग दौड़ की दुनिया में,

हमको एक पल का होश नहीं,

वैसे तो जीवन सुखमय है,

पर फिर भी क्यों संतोष नहीं,

क्या यूँ ही जीवन बीतेगा ?

क्या यूँ ही सांसे बंद होंगी ?

औरों की पीड़ा देख समझ,

कब अपनी आँखे नम होंगी ?

मन के भीतर कहीं छिपे हुए,

इस प्रश्न का उत्तर बाकी है।

तीन पहर तो बीत गये,

बस एक पहर ही बाकी है।

जीवन हाथों से फिसल गया,

बस खाली मुट्ठी बाकी है।

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मेरी खुशियां, मेरे सपने,

मेरे बच्चे, मेरे अपने,

यह करते करते शाम हुई,

इससे पहले तम छा जाए,

इससे पहले कि शाम ढ़ले,

दूर परायी बस्ती में,

एक दीप जलाना बाकी है।

तीन पहर तो बीत गये,

बस एक पहर ही बाकी है।

जीवन हाथों से फिसल गया,

बस खाली मुट्ठी बाकी है।

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