हम अक्सर दूसरों के लिए जीने लगते हैं.
_ परिवार, दोस्त, सहकर्मी – हर किसी की ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश में हम खुद को कहीं पीछे छोड़ देते हैं.
_ हमारे दिन की शुरुआत किसी और की मांगों से होती है, और रात किसी की उम्मीदों को पूरा करते हुए बीत जाती है.
_ और धीरे-धीरे, बिना हमें महसूस कराए, हम भीतर से खाली होने लगते हैं.
_ खालीपन सिर्फ एक भाव नहीं होता, वो धीरे-धीरे हमारे चेहरे पर उतर आता है, हमारी मुस्कान में झलकने लगता है.
_ हम थकते नहीं हैं, बल्कि सूखने लगते हैं – उस नदी की तरह जो दूसरों को सींचते-सींचते खुद बंजर हो जाए.
— पर क्या आपने कभी सोचा है —
_ अगर एक दीपक खुद बुझ जाए, तो वह किसी और के जीवन में रोशनी कैसे करेगा ?
_ अगर हमारे अंदर ही स्नेह, ऊर्जा और प्रेम का स्रोत न बचे, तो हम दूसरों को क्या दे पाएंगे ?
_ खुद की देखभाल करना स्वार्थ नहीं है, यह आत्म-सम्मान है.
_ यह स्वीकार करना है कि मैं भी उतना ही महत्वपूर्ण हूँ जितना कोई और..
_ कि मेरी थकान भी मायने रखती है, मेरी भावनाएँ भी ध्यान चाहती हैं, और मेरी आत्मा को भी प्यार की ज़रूरत है.
_ हम अपने प्रियजनों के लिए सब कुछ करना चाहते हैं — उनकी मदद करना, उन्हें मुस्कुराता देखना..
_ लेकिन सच यही है कि जब तक हम खुद को नहीं संवारते, तब तक वो सच्ची ऊर्जा, वो गहराई, वो स्थिरता हम दूसरों को नहीं दे सकते.
_ जब हम भीतर से भरे होते हैं — आत्मविश्वास, स्नेह और संतुलन से — तभी हमारे रिश्ते भी फलते-फूलते हैं.
_ इसलिए ज़रूरी है कि हम रोज़ थोड़ी देर खुद के साथ बिताएं.
_ वो चुप्पी में बैठकर आत्मा से संवाद करना हो सकता है, कोई किताब पढ़ना, खुलकर हँसना, एक लंबी साँस लेना, या बस बिना अपराधबोध के खुद के लिए कुछ अच्छा करना.
_ अपने आप को थामना, खुद को समझना और खुद से प्रेम करना — यही आत्म-देखभाल है.
_ क्योंकि अंत में, जब हम खुद से जुड़े होते हैं, तब ही हम सच्चे अर्थों में दूसरों से भी जुड़ सकते हैं.
_ और यही जीवन की सबसे सुंदर बात है — जब हम भीतर से भरे होते हैं, तब ही हमारे हाथों से बहकर दूसरों तक प्रेम पहुँचता है.
– Rahul Jha